मंगलवार, 18 मई 2010

ग़रीबों का घर पहचानने के लिए तख़्ती लगाए जाने की ज़रुरत है


ग़रीब के माथे पर तख़्ती

विनोद वर्मा विनोद वर्मा | रविवार, 16 मई 2010, 02:04 IST

आपको 'दीवार' फ़िल्म का अमिताभ बच्चन याद है, जिसके हाथ पर लिखा होता है, मेरा बाप चोर है.

उसमें सलीम-जावेद ने एक ऐसे ग़रीब परिवार के साथ समाज में होने वाले व्यवहार की एक कहानी रची थी जिसका दोष सिर्फ़ ग़रीबी था.

लेकिन देश की सरकारों ने ग़रीबों को ज़लील करने का एक नया तरीक़ा ढूँढ़ निकाला है. मानों ग़रीबी की ज़लालत कम थी.


कम से कम दो राज्य सरकारों ने ग़रीबी रेखा के नीचे रह रहे लोगों के घरों से सामने एक तख़्ती लगाने का फ़ैसला किया है जिससे कि पहचाना जा सके कि वह किसी ग़रीब का घर है.

छत्तीसगढ़ की सरकार पहले से ऐसा कर रही थी और अब राजस्थान की सरकार ने भी इसी तरह का फ़ैसला किया है. सरकारों का तर्क है कि इससे लोग जान सकेंगे कि कौन सा परिवार सरकार की दो या तीन रुपए किलो चावल की योजना का लाभ उठा रहा है. उनके अनुसार इससे यह पहचानने में भी आसानी होगी कि टीवी,फ़्रिज और गाड़ियों वाले किन घरों के मालिकों ने अपने को ग़रीब घोषित कर रखा है.

लेकिन उन ग़रीबों का क्या जो आज़ादी के 63 साल बाद भी सिर्फ़ इसलिए ग़रीब हैं क्योंकि इस देश की और प्रदेशों की कल्याणकारी सरकारों ने अपनी ज़िम्मेदारी नहीं निभाई? क्या सरकार को हक़ है कि वह ग़रीब रह गए लोगों का इस तरह से अपमान करे?

इन ग़रीबों ने सरकारों से जाकर नहीं कहा था कि उन्हें दो या तीन रुपए किलो चावल दिया जाए. एक तो वह राजनीतिक दलों का वोट बटोरने का तरीक़ा था. दूसरे वे जब ग़रीबी दूर करने का उपाय नहीं तलाश कर सके तो ग़रीब को ग़रीब रखते हुए सरकारी खजाने से अस्थाई राहत देने का तरीक़ा निकाल लिया. और अब इस बात पर सहमति भी बन रही है कि सरकारें ग़रीबों के माथे पर लिखवा दे कि वह ग़रीब है.

इससे दो बातें तो साफ़ है, एक तो यह कि चाहे वह भाजपा के रमन सिंह की सरकार हो या फिर कांग्रेस के अशोक गहलोत की सरकार, ग़रीबों के प्रति दोनों का नज़रिया एक जैसा ही है.

दूसरा यह कि जिन सरकारों को शर्मिंदा होना चाहिए कि वह ग़रीबी दूर नहीं कर पा रही हैं इसलिए मुआवज़े के रुप में दो या तीन रुपए किलो में चावल दे रही हैं, वही सरकारें ग़रीबों पर अहसान जता रही हैं.

जिस समय योजना आयोग के आँकड़े कह रहे हैं कि ग़रीबों की संख्या वर्ष 2004 में 27.5 प्रतिशत थी जो अब बढ़कर 37.2 प्रतिशत हो गई है, देश में किसानों की आत्महत्याएँ रुक नहीं रही हैं और जिस समय ख़बरें आ रही हैं कि ग़रीबी उन्मूलन का पैसा राष्ट्रमंडल खेलों में लगा दिया गया है.

उसी समय सरकारी आंकड़ों में यह भी दर्ज है कि देश के उद्योगपतियों और व्यावसायियों ने बैंकों से कर्ज़ के रूप में जो भारी भरकम राशि ली उसे अब वे चुका नहीं रहे हैं. यह राशि, जिसे एनपीए कहा जाता है, एक लाख करोड़ रुपए से भी अधिक है. देश की सौ बड़ी कंपनियों पर बकाया टैक्स की राशि पिछले साल तक 1.41 लाख करोड़ तक जा पहुँची थी.

बैंकों का पैसा और टैक्स अदा न करने वालों में देश के कई नामीगिरामी औद्योगिक घराने हैं और कई नामधारी कंपनियाँ हैं. इन कंपनियों के मालिक आलीशान बंगलों में रह रहे हैं और शानदार जीवन जी रहे हैं. इनमें से कोई भी ग़रीब नहीं हुआ है. अपवादस्वरूप भी नहीं.

क्या किसी राज्य की सरकार में यह हिम्मत है कि वह किसी बड़े औद्योगिक घराने या किसी बड़ी कंपनी के दफ़्तर के सामने या फिर उसके मालिक के घर के सामने यह तख़्ती लगा सके कि उस पर देश का कितना पैसा बकाया है?

जिस तरह सरकार को लगता है कि ग़रीबों का घर पहचानने के लिए तख़्ती लगाए जाने की ज़रुरत है उसी तरह देश के आम लोगों का पैसा डकारने वालों के नाम सार्वजनिक करने की भी ज़रुरत है.

लेकिन सरकारें ऐसा नहीं कर सकतीं क्योंकि यही उद्योगपति और व्यवसायी तो राजनीतिक पार्टियों को चंदा देती हैं और यही लोग तो मंत्रियों और अफ़सरों के सुख-सुविधा का ध्यान रखते हैं.

अगर एक बार कथित बड़े लोगों से बकाया राशि वसूल की जा सके तो इस देश में ग़रीबी दूर करने के लिए बहुत सी कारगर योजना चलाई जा सकती है.

लेकिन साँप के बिल में हाथ कौन डालेगा और क्यों डालेगा?

बी बी सी हिंदी से साभार -विनोद वर्मा का ब्लॉग