बुधवार, 27 अप्रैल 2011

बैठक में 17 अप्रैल को हुई चर्चा की रिपोर्ट


पिछली बैठक में चर्चा का विषय था सूफीवाद। पार्थिव और चंद्रभूषण ने इस
बैठक में सूफीमत पर प्रकाश डाला और बाद में सदस्यों ने इस पर चर्चा की।


पार्थिव ने चर्चा शुरु करते हुए कहा कि उन्होंने सिद्धांत के तौर पर

सूफीवाद को हमेशा जटिल पाया है। उनका कहना था कि सूफीवाद एक मध्ययुगीन
विचारधारा है और यह कहना कठिन है कि इस समय यह कितना प्रासंगिक है।



उन्होंने इस धारणा का खंडन किया कि भारत में सूफीवाद मुसलमान हमलावरों के

साथ आया। उन्होंने कहा कि वास्तव में इस्लाम तो भारत में सातवीं सदी में
ही आ गया था। हिंदू धर्म और इस्लाम के बीच संपर्क तभी से रहा है। सच तो
यह है कि इस देश में सूफीवाद की बुनियाद डालने वाले ख्वाजा मोइनुद्दीन
चिश्ती भारत में मोहम्मद गोरी से दो साल पहले ही पहुंच चुके थे। लिहाजा
यह कहना सही नहीं होगा कि सूफीवाद मुसलमान शासकों का उदार नकाब था जिसके
जरिए उन्होंने अपने जालिम चेहरे को ढंकने और हिंदुस्तानी अवाम को लुभाने
की कोशिश की।



उन्होंने बताया कि सूफियों के चार प्रमुख सिलसिलों नक्शबंदी, सोहरावरदी,

कादिरिया और चिश्तिया में से भारत में चिश्तियों की ही प्रमुखता है।
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती अजमेरी इसी सिलसिलें के थे जिसे बाद में
कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, हजरत निजामुद्दीन औलिया और नसीरुद्दीन चिराग
देहली ने आगे बढ़ाया।



पार्थिव ने कहा कि इस्लाम अपने मूल रूप में सबसे सरल धर्म रहा है। वह एक

निराकार परम शक्ति की बात करता है और उपासना की किसी जटिल पद्धति को
अपनाने के बजाय अच्छे और समाजोपयोगी आचरण पर जोर देता है। इस्लाम मानता
है कि अल्लाह तक कोई नहीं पहुंच सकता। अलबत्ता पैगंबर मोहम्मद के दिखाए
रास्ते पर चलते हुए उसके ज्यादा से ज्यादा करीब पहुंचा जा सकता है। लेकिन
खिलाफत विलासी उमय्यदों के हाथ में जाने के बाद इसका रूप बिगड़ता गया।
इसका दायरा तंग होता गया और इसमें नए विचारों के लिए जगह भी घटती गई।



सूफीवाद ने इस्लाम में बढ़ती कट्टरता और कठोर शरीयती व्यवस्था से निराश

मुसलमानों को एक नई उम्मीद दी। इसने रक्स (नृत्य) और समां (संगीत) को
आराधना के तरीके के रूप में स्वीकार किया जिनका इस्लाम में कड़ा निषेध
था। इसने वली को आशिक या माशूक मान कर उसका गुणगान करने की परंपरा डाली।
यह परंपरागत इस्लामी सोच के खिलाफ जरूर था मगर इससे सूफीवाद का इस्लाम के
बाहर भी प्रसार हुआ।



लेकिन सूफी परंपरा में भी समय के साथ रूढि़वाद घर करता गया है। इसमें वली

की भूमिका नैतिक पथ प्रदर्शक (मुर्शिद) की अधिक और दुखदर्द से निजात
दिलाने वाले (पीर) की कम रही है। लेकिन धीरे-धीरे मुर्शिद की भूमिका खत्म
होती गई और सिर्फ पीर रह गए।



पार्थिव का कहना था कि नसीरुद्दीन चिराग दिल्ली के बाद सूफीवाद अपनी राह

से भटक गया। सूफी संत अपने उत्तराधिकारी का चयन करने में काफी सावधानी
बरतते थे। अमीर खुसरो सिर्फ इसलिए निजामुद्दीन औलिया के उत्तराधिकारी
नहीं बन सके कि वह सुलतान के दरबार में थे। संत बनने की ईसाइयों जैसी कोई
स्पष्ट परंपरा नहीं रहने के कारण वलियों की नाकाबिल संतानें, समाज में
रसूख वाले भ्रष्ट व्यक्ति, छोटे मोटे करिश्मे दिखाने में माहिर मदारी और
नीम हकीम किस्म के लोग वली बन गए।



इस तरह प्रेम, करुणा और नैतिक मूल्यों पर आधारित एक उदार मत अपनी राह से

भटक गया। खानकाहों में आम लोगों के बीच पला बढ़ा सूफी संगीत अमीरों की
बैठकों में सिमट गया। दरगाहों पर अपने दुखदर्द का हल ढूंढने वालों का
मेला अब भी लगता है मगर इसमें शरीक होने वालों का सूफीवाद से कोई नाता
नहीं रहा है। सूफीवाद अपने सिद्धांत में अब भी प्रासंगिक है मगर उसके
मौजूदा स्वरूप में आधुनिक समाज के लिए शायद ही कुछ हो।



चंद्रभूषण ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि किसी भी धर्म के दो हिस्से

होते हैं। एक विधि और दूसरा निषेध। विधि यानी धर्म का एक परिचय। लेकिन
निषेध धर्म का असली चेहरा होता है और वही धर्म को उदार और कट्टर बनाता
है।



उनका कहना था कि सूफीवाद में निषेध कम हैं इसलिए इसमें तांकझांक की

गुंजाइश बनी रही। चूंकि वहां निषेध कम है इसलिए उसमें कल्पनाएं भी बहुत
हैं। उन्होंने भारत से बाहर सूफी संप्रदाय पर भी चर्चा की और कहा कि
तुर्की में सूफी संप्रदाय का बहुत प्रभाव है और आज भी उनके जैसा रक्स कोई
नहीं करता।



चंद्रभूषण का कहना था कि राजसत्ता के साथ सूफी कभी नहीं रहे। वे हमेशा

शुद्धतावाद के खिलाफ रहे क्योंकि वे मानते रहे कि शु्द्ध धर्म कुछ होता
ही नहीं।



उन्होंने कहा कि सूफी एक ऐसा मत है जिसमें ग्रे एरिया बहुत है। इसकी वजह

से वहां व्यक्ति ही नहीं परंपराएं भी आ जा सकती हैं। वह इस्लाम की तरह
उदार रहा है कि आप चाहें तो सूफी धर्म को अपना सकते हैं। वह यहूदी धर्म
की तरह कट्टर कभी नहीं हुआ कि कोई चाहे भी तो यहूदी नहीं बन सकता।



चर्चा में अनिल दुबे ने भी अपने विचार रखे।



इस चर्चा से पहले जगदीश यादव ने दो हफ़्ते पहले बैठक के सदस्यों के साथ की

गई विभिन्न ऐतिहासिक स्थलों की यात्रा की तस्वीरों का एक स्लाइड शो
प्रदर्शित किया, जिसकी सभी सदस्यों ने काफी सराहना की।
बैठक के सभी सदस्यों में इस बात पर सहमति बनी कि इस तरह के ऐतिहासिक
स्थलों की यात्रा का क्रम जारी रखा जाए और सूफीवाद पर और चर्चा की जाए।

जगदीश यादव के चित्रों की विडिओ क्लिप -
दौरे गुजिश्ता-बैठक महरौली विरासत यात्राः एक रिपोर्ट
अकीदतों के मेलमिलाप का शहर

 दिल्ली परिवहन निगम की एक चमचमाती लाल एयरकंडिशंड बस टूटीफूटी सड़क पर
हिचकोले खाती हुई बाईं ओर मुड़ी और टर्मिनल के एक कोने में जाकर खड़ी हो
गई। उसके पहियों से उड़े धूल के गुबार ने सड़क के दूसरी तरफ खड़े आदम खां के
मकबरे को पूरी तरह ढंक लिया। लेकिन 16 वीं सदी का यह टूटाफूटा मकबरा अगले
ही पल अपना बदन झाड़ कर फिर से खड़ा था। गुजरे और मौजूदा जमानों के बीच
तालमेल बिठाने की महरौली की कवायद सूरज उगने के साथ ही शुरू हो चुकी थी।

 किसी टाइम मशीन जैसी ही है लगभग 1300 साल पुरानी महरौली। इसकी तंग
गलियों से गुजरते हुए सदियों का फासला पल भर में तय हो जाता है। अभी
तोमरों के लालकोट में और अगले ही पल चौहानों के किला राय पिथौरा में।
गुलामों की गंधक बावली और मुगलिया दौर के झुटपुटे में बने जफर महल के बीच
की दूरी भी कुछ मिनटों की ही है।

 महरौली गांव की विरासत यात्रा पर निकले हम 10 दीवानों का पहला पड़ाव 19
वीं सदी की शुरुआत में बना योगमाया मंदिर था। सादे ढंग से बने इस मंदिर
की कोई खास इमारियाती अहमियत नहीं है। लेकिन आठवीं सदी के लालकोट के
खंडहरों पर बना यह मंदिर दिल्ली के मजहबी भाईचारे की मिसाल है। बादशाह
अकबर द्वितीय के जमाने में शुरू की गई फूलवालों की सैर के दौरान हर साल
इस मंदिर में फूलों का पंखा चढ़ाया जाता है।

 अकबर द्वितीय के बेटे मिर्जा जहांगीर ने 1812 में लाल किले में ब्रिटिश
रेसिडेंट आर्किबाल्ड सेटन पर गोली चला दी थी। सेटन इस हमले में बच गया और
उसने मिर्जा जहांगीर को गिरतार कर इलाहाबाद भिजवा दिया। मिर्जा जहांगीर
की मां मुमताज बेगम ने मन्नत मांगी कि उसके बेटे को रिहा कर दिया गया तो
वह कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह पर फूलों की चादर चढाएगी।

 मिर्जा जहांगीर दो साल बाद रिहा हो गया और उसकी मां ने शेख निजामुद्दीन
औलिया की दरगाह से पैदल चल कर कुतुब साहब की मजार पर फूलों की चादर चढ़ाई।
इसके साथ ही योगमाया मंदिर में फूलों का पंखा चढ़ाया गया और महरौली में
सात दिनों तक जश्न चलता रहा। यह सालाना जश्न अब भी हर साल बारिशों के बाद
मनाया जाता है और फूलवालों की इस सैर में सभी मजहबों के लोग शिरकत करते
हैं।

 योगमाया मंदिर से हम पैदल आदम खां के मकबरे तक पहुंचे। आदम खां बादशाह
अकबर की दाई मां माहम अंगा का बेटा था। उसने अकबर की दूसरी दाई मां जीजी
अंगा के शौहर अतगा खान की 1561 में हत्या कर दी। इसके बाद बादशाह ने आदम
खां को आगरा के किले की दीवार से नीचे फिंकवा दिया। माहम अंगा ने अपने
बेटे के मरने के गम में कुछ ही दिन बाद दम तोड़ दिया। अकबर के हुक्म पर ही
आदम खां और उसकी मां को इस मकबरे में दफनाया गया।

 एक ऊंचे चबूतरे पर बना आठ कोनों वाला यह मकबरा अपनी बनावट से लोधियों
के समय का लगता है। इसके ऊपर आधे चांद की शक्ल का गुंबद है और हर तरफ
बरामदा और अंदर घुसने का रास्ता। इस मकबरे के पीछे तोमर राजा अनंगपाल के
शहर लालकोट के खंडहर अब भी दिखाई देते हैं।

 हम सड़क पार कर एक संकरी सी गली से गुजरते हुए गंधक की बावली तक पहुंचे।
पांच मंजिल की इस खूबसूरत बावली को सुलतान अलतमश ने 13 वीं सदी में कुतुब
साहब के इस्तेमाल के लिए बनवाया था जिनकी दरगाह पास ही है। पतले खंभों
वाली इस बावली के दक्षिण की ओर गोल कुआं है और हर मंजिल पर बरामदा।
दिल्ली की सबसे पुरानी इस बावली का पानी अब लगभग पूरी तरह सूख चुका है।

 13 वीं सदी के सूफी संत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह गए बिना
महरौली की सैर अधूरी रहती है। कुतुब साहब अजमेर के ख्वाजा मोइनुद्दीन
चिश्ती के मुरीद थे। उनकी दरगाह के अहाते में मोइनुद्दीन चिश्ती के ही
मुरीद रहे शेख हमीदुद्दीन नागौरी भी दफन हैं। दरगाह के अंदर जमातखाना,
वजूखाना, मस्जिद और नौबतखाना को बादशाहों ने अलग- अलग समय में बनवाया था।

 दरगाह के नजदीक हमने रंगबिरंगी टोपियां और फूल खरीदे और अंदर काफी देर
तक कव्वालियों का मजा लिया। दरगाह के अजमेरी दरवाजे के नजदीक दो मीनारों
और तीन मेहराबों वाली मोती मस्जिद है जिसे औरंगजेब के बेटे बहादुर शाह
प्रथम ने बनवाया था। संगमरमर की इस मस्जिद की बनावट लाल किले में औरंगजेब
की बनवाई मोती मस्जिद जैसी ही है।

 अजमेरी दरवाजे से कुछ ही दूरी पर मुगलों की आखिरी इमारतों में से एक
जफर महल है जिसे अकबर द्वितीय ने 18 वीं सदी में बनवाया था। अंतिम मुगल
बादशाह बहादुर शाह जफर के समय में बनाए गए इस महल का दरवाजा काफी भव्य
है। लाल बलुआ पत्थर और संगमरमर से बने तीन मंजिले इस महल का ज्यादातर
हिस्सा ढह चुका है। अकबर द्वितीय समेत मुगल घराने के कई जानीमानी
हस्तियां इस महल की चहारदीवारी में दफन हैं।

 जफर महल से हौज शम्सी तक का लगभग एक किलोमीटर का सफर तय करने में हमें
पूरा घंटा लग गया। संकरी सड़क पर जबर्दस्त भीड़भाड़ में हमारी कारों के पहिए
थम गए। हौज शम्सी के पार्किंग की जगह ढूंढना भी टेढ़ी खीर था। इन
परेशानियों से जूझने के बावजूद हम जहाज महल तक पहुंचने में कामयाब रहे जो
हमारे इस सफर की आखिरी मंजिल था।

 हौज शम्सी के एक छोर पर जहाज महल को लोधियों के जमाने में सराय के तौर
पर बनाया गया था। दूर से देखने पर यह हौज शम्सी में तैरता दिखाई देता है
और इसीलिए इसे जहाज महल कहा गया। पूरब की ओर दरवाजा वाले इस सराय में एक
दालान के इर्दगिर्द मेहराबदार कोठरियां बनी हैं। इसमें एक छोटी से मस्जिद
भी हुआ करती थी और नफीस छतरियां इस इमारत की खूबसूरती को बढ़ाती है। इस
इमारत का ज्यादातर हिस्सा टूटीफूटी हालत में है।

 हौज शम्सी को सुलतान अलतमश ने 1230 में बनवाया था। कहते हैं कि उसे
पैगंबर मोहम्मद ने सपने में इस जगह पर तालाब बनाने का हुक्म दिया था।
तालाब के एक छोर पर लाल बलुआ पत्थर का दो मंजिला मंडप है। बारह खंभों पर
टिके इस मंडप के बारे में कहानी है कि सुलतान को इस जगह मोहम्मद साहब के
घोड़े के खुरों के निशान मिले थे। यह मंडप कभी तालाब के बीच में हुआ करता
था मगर जमीन माफिया के अवैध कब्जों ने इसे एक किनारे धकेल दिया है। दो
हेक्टेयर में फैले इस तालाब कि किनारे सत्रहवीं सदी के फारसी के मशहूर
लेखक अब्दुल हक देहलवी दफन हैं।

 तकरीबन 1300 साल का सफर तीन घंटों में पूरा करने के बाद हम बुरी तरह थक
चुके थे। ढाबे में बैठ कर चाय की चुस्की लेते हुए हमने चारों ओर  नजर
दौड़ाई। हर तरफ इंसानों का रेला और शोरशराबा। मिर्च मसाले से लेकर
हार्डवेयर और हुक्के तक की दुकानें। रेहड़ी-खोमचा वालों की जमघट। अकीदतों
के मेलमिलाप का शहर महरौली अब हिंदुस्तान के किसी भी छोटे से कस्बे में
तब्दील हो गया है।