बुधवार, 13 जुलाई 2011

पिछली बैठक की रिपोर्ट

रविवार, 10 जुलाई, 2011 को बैठक में चर्चा का विषय था, क्या मौजूदा भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों से देश में बुनियादी बदलाव का रास्ता खुलेगा?
इस विषय पर चर्चा के लिए सबलोग और संवेद पत्रिकाओं के संपादक किशन कालजयी और यूनीवार्ता के विधि संवादददाता सुरेश तिवारी अतिथि वक्ता के रूप में आमंत्रित किए गए थे.
अनिल दुबे ने चर्चा की प्रस्तावना में कहा कि भ्रष्टाचार कोई नया मुद्दा नहीं है, लेकिन अब ऐसा लगता है कि इसका परिमाण बड़ा हो गया है. कुछ लाख तक के भ्रष्टाचार की बात अब लाखों करोड़ों तक जा पहुँची है. वर्तमान भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि  अन्ना हज़ारे की पृष्ठभूमि की वजह से मध्यवर्ग उस आंदोलन से जुड़ गया, लेकिन इससे एक बात साफ़ हुई कि लोगों की वर्तमान पॉलिटिकल सिस्टम में दिलचस्पी नहीं है. उनका कहना था कि भ्रष्टाचार से निपटने के लिए बुनियादी ढाँचे को ठीक किया जाना चाहिए. भ्रष्टाचार आंदोलनों के संदर्भ में उन्होंने जानना चाहा कि क्या इस तरह के आंदोलन किसी बड़े सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन का कारक हो सकते हैं?
किशन कालजयी ने अनिल दुबे की इसी बात को सूत्र की तरह लिया कि भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं है. उन्होंने कहा कि अभिज्ञान शांकुतलम में इसका ज़िक्र है कि जब मछुआरे ने दुष्यंत की अंगूठी वापस की, तो राजा दुष्यंत ने मछुआरे को अंगूठी के मूल्य के बराबर का धन दिया. मछुआरे ने इसमें से आधी रकम नगर रक्षक को दे दी थी, जो राजा का साला था. इसके बाद किशन कालजयी ने 1930 के आसपास लिखी गई नमक का दरोगा कहानी का ज़िक्र किया. उन्होंने याद किया कि यह वही समय था, जब गांधीजी ने वॉयसराय को चिट्ठी लिखकर कहा था कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री की तनख़्वाह आम ब्रिटिश नागरिक की तनख़्वाह से 90 गुना है, लेकिन वॉयसराय आम भारतीय की औसत आय दो आने से हज़ारों गुना ज़्यादा (21 हज़ार रुपए) की तनख़्वाह क्यों लेते हैं. बाद में यही सवाल राममनोहर लोहिया ने भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर होने वाले खर्च को लेकर भी पूछा था.
उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार आंदोलन के हाल के इतिहास को देखें, तो दो बड़ी घटनाएँ याद आती हैं. एक तो जयप्रकाश का आंदोलन और दूसरी वीपी सिंह का आंदोलन. उनका कहना था कि जयप्रकाश के आंदोलन ने जनता पार्टी सरकार के गठन की नींव रखी, लेकिन वह भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लड़ने की बजाय आपसी कलह में ही उलझी रही. इसी तरह वीपी सिंह ने सरकार बनाने के बाद बोफ़ोर्स घोटाले का कुछ नहीं किया. उनका कहना है कि इन दोनों उदाहरणों से साफ़ है कि इस तरह के आंदोलनों से आप सत्ता को हिला तो सकते हैं, लेकिन परिवर्तन नहीं ला सकते.
उन्होंने कहा कि बाबा रामदेव की पकड़ लोगों पर ज़्यादा थी, लेकिन उन्होंने हल्केपन की बात की और मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया. वहीं अन्ना के आंदोलन में ज़्यादा एकजुटता दिखी. मीडिया ने भी इसे बढ़चढ़ कर दिखाया. उन्होंने सवाल उठाया लेकिन यही मीडिया पूर्वोत्तर राज्य की इरोम शर्मिला के मामले को उस तरह से क्यों नहीं दिखाता? उन्होंने कहा, "मेरी जानकारी के अनुसार अन्ना हज़ारे के आंदोलन को बिना कमर्शियल ब्रेक लिए लगातार दिखाने पर एक न्यूज़ चैनल को दो सौ करोड़ रुपयों का नुक़सान हुआ और इसकी भरपाई एक बड़े कॉर्पोरेट हाउस ने की."
किशन कालजयी ने कहा कि भ्रष्ट वही होता है, जिसके पास सत्ता है, ताक़त है. उनका कहना था कि शायद इसीलिए सरकारी महकमों में जितना भ्रष्टाचार है, उतना भ्रष्टाचार निजी क्षेत्र में नहीं है. उनका कहना था कि राजनीतिक भ्रष्टाचार का एक बड़ा स्रोत चुनाव है. यहाँ तक कि गाँव के मुखिया के चुनाव में भी वोट दो-दो तीन-तीन सौ रुपए में बिकते हैं. उनका कहना था कि भ्रष्टाचार के स्रोत को पकड़ने की ज़रूरत है.
उनका कहना था कि भ्रष्टाचार को भ्रष्टाचार कहने का साहस लोगों में जगाना होगा. और यह जागरूकता पैदा करने की ज़िम्मेदारी बु्द्धिजीवी वर्ग की है. आंदोलनों की सफलता के बारे में उन्होंने कहा कि भारत में लोगों के पास विचारों की कमी नहीं है लेकिन चरित्र की कमी है. उनका कहना था कि विचार के लिए तो महावीर, बुद्ध से लेकर गांधी तक हैं लेकिन चरित्र नहीं है. अन्ना का आंदोलन इसलिए सफल हुआ क्योंकि उनका एक चरित्र है. उनकी राय थी कि संकट चरित्र का है इसलिए हमें विचारों को जीना होगा और चरित्र गढ़ने होंगे.
चर्चा को आगे बढ़ाते हुए लाल रत्नाकर ने कहा कि कालजयी जी ने तमाम तरह के भ्रष्टाचार की बातें कहीं लेकिन उन्होंने सामाजिक भ्रष्टाचार को अनदेखा कर दिया, जबकि सामाजिक भ्रष्टाचार अपने आपमें बड़ी समस्या है.
विद्याभूषण अरोड़ा का कहना था कि ये अपने आपमें बड़ा सवाल है कि सरकारी लोगों और बिज़नेसमैन में कौन बड़ा भ्रष्टाचारी है. उन्होंने कहा कि कालजयी जी ने चुनाव में भ्रष्चाचार को ख़त्म करने की बात कही, लेकिन इसमें एक ख़तरा ये है कि इससे कहीं चुनाव की प्रक्रिया ही न बदल जाए, क्योंकि ये चुनाव प्रक्रिया ही है जो मायावती जैसे लोगों को सत्ता तक पहुँचा सकती है.
कृष्णा ने भ्रष्टाचार और कालेधन के बहुत से आंकड़े पेश किए. उन्होंने कहा कि विदेशों में जमा कालेधन की बात तो की जा रही है, लेकिन देश के भीतर चल रहे कालेधन की कोई बात नहीं कर रहा है, जबकि ये धन भी बहुत बड़ा है. उनका कहना था कि अन्ना के आंदोलन को जिस मध्यवर्ग का बड़ा समर्थन मिला वह वर्ग चाहता है कि भ्रष्टाचार तो दूर हो, लेकिन विकास भी चलता रहे. इस वर्ग का कहना है कि व्यवस्था में थोड़ा बदलाव होना चाहिए.
पार्थिव कुमार ने कहा कि मध्यवर्ग दरअसल सरकार का चेहरा है. इसलिए सरकार उनसे नरमी बरतती है और अन्ना के आंदोलन से बातचीत करती है, इससे सरकार की छवि सुधरती है. उनका कहना था कि ये सच है कि समाज में एकजुटता नहीं है, इसलिए सिविल सोसायटी के आंदोलनों के प्रति सरकार की प्रतिक्रिया दिल्ली में अलग और छत्तीसगढ़-झारखंड-उड़ीसा में अलग होती है. उन्होंने कहा कि सरकार अगर कहती है कि अन्ना की टीम पूरे समाज के प्रतिनिधि नहीं हैं, तो ऐसे में तो संसद भी हमारे समाज की पूरी प्रतिनिधि नहीं है. उन्होंने लोकपाल विधेयक पर सभी राजनीतिक दलों की एकजुटता पर सवाल उठाते हुए कहा कि सशक्त क़ानून तो छो़ड़ दीजिए, संसद में बैठे लोग तो यही नहीं चाहते कि क़ानून बने. उनका कहना था कि सुराख अगर कर दिया गया है तो ये तय है कि आने वाले दिनों में वह बड़ा होगा.
तड़ित कुमार ने कहा कि भ्रष्टाचार का अर्थ सिर्फ़ रिश्वतखोरी नहीं है, ऑफ़िस में जाकर काम न करना और कम काम करना भी भ्रष्टाचार है. उनका कहना था कि भ्रष्टाचार को ख़त्म करने के लिए दृढ़ इच्छा शक्ति वाले नेतृ्त्व की ज़रूरत है. उन्होंने इसका उदाहरण देते हुए कहा कि मुसोलिनी भले ही तानाशाह रहा हो, उसने इटली से माफ़िया का सफ़ाया कर दिया था, या इंदिरा गांधी जैसी नेता जिन्होंने इमरजेंसी लगाई. इमरजेंसी में बहुत कुछ हुआ जो बुरा था, लेकिन ट्रेनें समय से चलने लगीं थीं और लोग समय पर ऑफ़िस पहुँचने लगे थे. उनका कहना था कि ये उम्मीद करना कि कोई मूलभूत परिवर्तन होने जा रहा है,  भूल होगी.
प्रकाश का कहना था कि लोकतंत्र में सत्तारूढ़ पार्टी को अपनी छवि की चिंता होती है और इस छवि को लेकर जब सवाल उठाए जाते हैं तो सरकार मुद्दों पर विचार करना स्वीकार कर लेती है. इस समय यही हो रहा है. उन्होंने कहा  कि अभी सरकार को बहुत से काम करने हैं, जिसके लिए उसे बेहतर छवि की ज़रुरत है. प्रकाश का कहना है कि फिर भी यदि भ्रष्टाचार का सवाल उठा है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए.
रामशिरोमणि शुक्ला ने कहा कि जो कुछ भी अच्छा हो रहा है उसकी हवा निकालने की कोशिश की जा रही है. उनका कहना था कि देश में चुनाव आयोग ने अच्छा काम किया और इसी तरह से सूचना के अधिकार पर अच्छा काम हुआ है. लेकिन इरोम शर्मिला जैसी एक लड़की बरसों बरस से आंदोलन करती है और उसका सरकार नोटिस तक नहीं लेती. उन्होंने कहा कि निगमानंद की हरिद्वार में और नागनाथ की वाराणसी में हुई हालात पर भी बहुत हलचल नहीं होती. उनका कहना था कि जैसा भी हो इन आंदोलनों के तत्वों का स्वागत किया जाना चाहिए.
सुरेश तिवारी ने कहा कि पिछले दिनों न्यायपालिका में एक्टिविज़्म बढ़ा है, लेकिन न्यायपालिका भी भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं है. उन्होंने जजों की नियुक्ति का उदाहरण देते हुए कहा कि कॉलेजियम से संबंध होने न होने, किसी राजनेता से ताल्लुकात होने न होने का भी नियुक्ति पर फ़र्क पड़ता है. उनका कहना था कि जो जनहित याचिकाएँ समाज को प्रभावित करने वाली हैं, उनका स्वागत किया जाना चाहिए.
विनोद वर्मा ने कहा कि सिर्फ़ आर्थिक भ्रष्टाचार को दूर करने से काम नहीं चलने वाला है, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और नैतिक भ्रष्टाचार को भी साथ में ख़त्म करना होगा तब कहीं भ्रष्टाचार पूरी तरह से ख़त्म होगा. उनका कहना था कि अन्ना हज़ारे और बाबा रामदेव के आंदोलन में जो मध्यवर्ग भाग ले रहा था उनमें से ज़्यादातर अपने दैनिक कार्यों से निपटने के बाद मानो अपना पाप धोने के लिए इन आंदोलनों का हिस्सा हो रहे थे. इन आंदोलनों में वह वर्ग हिस्सा ही नहीं था, जो देश की आबादी का 70 प्रतिशत है और जिसकी आय 20 रुपए रोज़ से अधिक नहीं है. जब तक ये वर्ग आंदोलन का हिस्सा नहीं बनेगा, ये सवाल ही अप्रासंगिक है कि क्या इससे कोई परिवर्तन होने जा रहा है.
अंत में बैठक की ओर से अतिथिद्वय किशन कालजयी और सुरेश तिवारी का आभार प्रकट किया गया और भविष्य में बैठक का हिस्सा बने रहने का अनुरोध किया गया.