बुधवार, 21 मार्च 2012

चुनाव परिणामों के निहितार्थ - देश और उत्तर प्रदेश के लिए.

11 मार्च को हुई बैठक में चर्चा का विषय था.
चुनाव परिणामों के निहितार्थ - देश और उत्तर प्रदेश के लिए.

कृष्णा भवन में हुई इस बैठक की शुरुआत सुदीप ठाकुर ने की. उन्होंने कहा कि पहला सवाल उनके ज़हन में ये आता है कि अगर आज लोहिया होते तो वो चुनाव परिणामों के बारे में क्या कहते. उनका कहना था कि समाजवाद अब जिस मकाम पर जा पहुँचा है, उस पर विचार होना चाहिए और इस पर भी क्या परिवारवाद के लिए अकेले राहुल गांधी ज़िम्मेदार हैं? उन्होंने कहा कि नौकरशाही का राजनीतिकरण जितना उत्तरप्रदेश में हुआ है, उतना किसी और प्रदेश में नहीं हुआ. उनका कहना था कि मुलायम सिंह के लिए दिल्ली अभी दूर है. चंद्रभूषण ने कहा कि उत्तर प्रदेश को बिहार के साथ रखकर देखना तय होगा. उनका कहना था कि नीतीश कुमार का पहला चुनाव तो तय मुहावरे पर था लेकिन दूसरा नहीं. दूसरी बार उन्होंने अपनी भूमिका तय की, जाति के बड़े ब्लॉकों को तोड़ा. जबकि मुलायम पिछड़े मुहावरे के नेता हैं और मुसलमानों की गोलबंदी उनका लक्ष्य रहा है. उन्होंने कहा कि अखिलेश के लिए मुख्यमंत्री के रूप में चुनौती होगी कि वे अपने अफ़सर किस तरह से चुनते हैं. चंद्रभूषण का कहना था कि वर्ष 2014 में होने वाले चुनाव अगल मुहावरे के चुनाव होंगे और सारे नेताओं को अपने हिज्जे दुरुस्त करने होंगे. विद्याभूषण ने कहा कि उत्तर प्रदेश से मायावती का जाना ठीक नहीं लगा क्योंकि चाहे वो जैसी भी हों, वो दलितों की ताक़त की प्रतीक थी. उनका कहना था कि मुलायम सिंह भले ही पिछड़ों के नेता हों लेकिन वे दबंगों के नेता हैं. उनका मत था कि क्षेत्रीय पार्टियों का मज़बूत होना ठीक है क्योंकि क्षेत्रीय नेता ही स्थानीय लोगों के सपने सच कर सकते हैं.

पार्थिव ने चुनाव आयोग की ओर से जारी मतदान के प्रतिशत के आंकड़ों के हवाले से कहा कि दिखता है कि जहाँ लोग सरकार से संतुष्ट थे वहाँ मतदान का प्रतिशत नहीं बढ़ा, जैसा कि उत्तराखंड में हुआ. अगर वहाँ भितरघात न होता तो बीजेपी की सरकार लौट भी सकती थी. जबकि उत्तर प्रदेश, पंजाब में जनता नाख़ुश थी और वहाँ मतों का प्रतिशत बहुत बढ़ा. उत्तर प्रदेश के नतीजों के बारे में उन्होंने कहा कि यह अखिलेश यादव और उनकी पार्टी की जीत कम मायावती की हार ज़्यादा है. लोगों ने उनकी कार्यप्रणाली और भ्रष्टाचार को नकार दिया है. उन्होंने कहा कि कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं रहा लेकिन यूपी, पंजाब, उत्तराखंड और मणिपुर में कांग्रेस की सीटें बढ़ीं लेकिन भाजपा की सीटें घटीं और ये उसके लिए चिंता की बात होनी चाहिए. उनका कहना था कि इन परिणामों ने दिखा दिया है कि अब राहुल गांधी स्टाइल की राजनीति नहीं चलेगी. तड़ित कुमार ने कहा कि यूपी में लोगों ने मायावती के भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ वोट दिया वहीं अमेठी-रायबरेली के चुनाव परिणाम दिखाते हैं कि वहाँ केंद्र के भ्रष्टाचार का असर पड़ा. उनका कहना था कि अन्ना हज़ारे ने जो अभियान चलाया, उसका असर हुआ है, ऐसा दिखता है. उन्होंने कहा कि इन चुनावों ने एक अहम सवाल उठाया कि अब वामपंथियों की क्या भूमिका होगी और अगर उन्होंने बुद्धिमानी से काम किया तो नया दृश्य देखने को मिल सकता है. प्रकाश ने कहा कि लोगों में बदलाव और विकास की इच्छा बढ़ी है और वह वोट में ज़रुर तब्दील हुई है. उनका कहना था कि विकास का मॉडल क्या हो, यह एक बड़ी समस्या है.

रामशिरोमणि ने कहा कि चुनाव के दौरान मीडिया का ध्यान प्रियंका और राहुल पर केंद्रित था जबकि चुनाव धरातल पर हो रहे थे और परिणाम भी धरातल पर आए. उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार बड़ा मुद्दा था लेकिन उत्तराखंड में एकदम उलट हुआ कि खंडूरी हार गए और निशंक जीत गए. उन्होंने कहा कि इन चुनावों में भी वही जात-पात था लेकिन एक नई चीज़ दिखाई दी कि दलितों के भीतर स्वाभिमान जागृत हुआ है. उनका कहना था कि जिस सोशल इंजीनियरिंग की चर्चा पिछली बार हुई थी, इस बार उसका कोई विश्लेषण नहीं हुआ. उन्होंने कहा कि इन चुनावों में कोई नारा नहीं था. विनोद ने कहा कि भारतीय लोकतंत्र के पैरामीटर्स इतने अधिक हैं कि ये ठीक-ठीक जानना कठिन होता कि कोई चुनाव परिमाण आया तो उसके पीछे किन-किन समीकरणों ने काम किया. उनका कहना था कि पिछले दो दशकों के चुनावों ने कम से कम एक पैरामीटर को पहचानने में मदद की है और वो है नेता की विनम्रता और सहज उपलब्धता. उन्होंने भूपेंद्र सिंह हुड्डा से लेकर नीतीश कुमार और रमन सिंह से लेकर शिवराज सिंह चौहान तक का उदाहरण देकर कहा कि ये सभी नेता अपने प्रतिद्वंद्वी के मुक़ाबले विनम्र रहकर चुनाव जीत सके.

अगली बैठक में तड़ित कुमार अपने नए उपन्यास का अंश सुनाएँगे और फिर उस पर चर्चा की जाएगी.

बैठक की रिपोर्ट

बैठक, 
26 फरवरी 2012


इस बार बैठक में प्रतिभाशाली कवि और उतने ही सजग पत्रकार चंद्रभूषण ने
अपनी कविताएं सुनाईं। इनमें तकरीबन दो- दशकों के दौरान लिखी गईं
नई-पुरानी दोनों तरह की कविताएं थीं। चंद्रभूषण के पास बड़ी रेंज है और
वे कविताएं में अद्भुत शब्दचित्र खींचते हैं, जिनमें गहरी रुमानियत तथा
फंतासी के साथ ही जीवन के संघर्ष के अक्स देखे जा सकते हैं। उन्होंने
खुशखबरी, भीड़ में दुःस्वप्न, गेरुआ चांद, माया मृग,  क्या किया,  ताश
महल, भूख से कोई नहीं मरता, पैसे का क्या है,  जैसी एक दर्जन से ज्यादा
कविताएं सुनाईं। बैठक के साथियों ने उनकी कविताओं को काफी सराहा और
खासतौर से रात में रेल और गेरुआ चांद कविता को पसंद किया।
उनकी कविताओं पर चर्चा की शुरुआत करते हुए विद्याभूषण ने कहा कि इन
कविताओं को सुनते हुए ऐसा लगा मानो हम एक नहीं दो कवियों को सुन रहे हैं।
एक मानो हलके से अपनी बात कहता है और दूसरा गहराई में खींचकर ले जाता है।
तड़ित दादा ने कहा,  'मैं इन कविताओं को सुनकर मगन हो गया। एक साथ इतनी
कविताओं को सुनने के बाद उस पर टिप्पणी करना बहुत मुश्किल है। ऐसा लगता
है कि काव्यात्मकता, रूमानियत, फंतासी, नाटकीयता, अंतरराष्ट्रीयता का
शब्दजाल बुन दिया गया हो और कमरे में अभी मोमबत्ती का जलाया जाना बाकी
हो।' उन्होंने कहा कि चंद्रभूषण  की कविताएं जब जमीन को छूकर चलती हैं,
तो वहां अच्छी लगती हैं। मगर जब धुआं फैलता है, तब पता नहीं चलता कि वह
किधर जाएगा।
प्रकाश ने कहा कि चंद्रभूषण को वे पढ़ते रहे हैं। उनकी कविताओं में मध्य
वर्गीय द्वंद्व को साफ महसूस किया जा सकता है। उनकी कविताओं में उनके
क्रांतिकारी इतिहास के साथ ही निजी अंतरद्वंद्व भी साफ दिखता है।
चंद्रभूषण की कविताओं में एक तरह की लय है।
पार्थिव कुमार ने चंद्रभूषण शब्दों को फूलों की तरह चुनते हैं और सावधानी
से गुलदस्ता तैयार करते हैं। वे दृश्य का निर्माण इस तरह करते हैं जिसमें
फेरबदल की गुंजाइश नहीं होती। उनकी कविताएं सोचने की आजादी कम देती हैं।
निधीश त्यागी ने कहा कि चंद्रभूषण की कविताएं संवेदनाओं से भरी हुई हैं।
उनमें महानगरीय मनुष्य के अंतरद्वंद्व और विवशताएं भी है और सेंसिबिलिटी
भी। रात में रेल उनकी सबसे शानदार कविता है जिसमें एक खास तरह की लय है।
विनोद वर्मा चंद्रभूषण की कविताओं को दो विपरीत छोरों से जोड़कर देखते
हैं. उनके मुताबिक उनकी कविताएं झूले की तरह एक छोर पर ले जाते हैं, जहां
कोई और दुनिया है और पलभर में ही वह खींचकर धरातल पर ले आती हैं। उनकी
कविताएं आश्वस्त करती सी लगती हैं।
सुदीप ठाकुर ने कहा कि चंद्रभूषण की कविताओं को सुनते हुए लगता है कि वह
लंबे अंतराल की कविताएं हैं, जिसमें रूमानियत, फंतासी के साथ ही जीवन की
जद्दोजहद साफ महसूस की जा सकती है।




चंद्रभूषण की कविता-  
रात में रेल


रात में रेल चलती है


रेल में रात चलती है


खिड़की की छड़ें पकड़कर


भीतर उतर आता है


रात में चलता हुआ चांद


पटरियों पर पहियों सा


माथे पर खट-खट बजता है


छिटकी हुई सघन चांदनी


रेल का रस्ता रोके खड़ी है


रुकी हुई रेल सीटी देकर


धीरे-धीरे सरकती है


अधसीसी के दर्द की तरह


हवा पेड़ों के सलेटी सिरों पर


ऐंठती हुई गोल-गोल घूमती है




आधी से ज्यादा जा चुकी रात में


सोए पड़े हैं ट्रेन भर लोग


लेकिन कहीं कुछ दुविधा है-


ड्राइवर से फोन पर निंदासी आवाज में


झुरझुरी लेता सा बोलता है गार्ड-


'शायद कोई गाड़ी से उतर गया है...


अभी-अभी मैंने किसी को


नीचे की तरफ जाते देखा है...'




नम और शांत रात में


उड़ता हुआ रात का एक पंछी


नीचे की तरफ देखता है


वहां खेत में रुके हुए पानी के किनारे


चुपचाप बैठा कोई रो रहा है


पानी में पिघले हुए चांद को निहारता


बुदबुदाता हुआ सोना...सोना...




और लो, यह क्या हुआ?


सात समुंदर पार भरी दोपहरी में


लेनोवो का मास्टर सर्वर बैठ गया!




घंटे भर बेवजह सिस्टम पर बैठी


जम्हाइयां ले रही सोना सान्याल


ब्वाय फ्रेंड को फोन मिलाती हैं-


'पीक आवर में सर्वर बैठ गया,


अमेरिका का भगवान ही मालिक है'


दू...र गुम होती लाल बत्तियां


फोन पर ही हैडलाइट को बोलती हैं-


'बताओ...ऐसे वीराने में ट्रेन से उतर गया,


इस इंडिया का तो भगवान ही मालिक है' 

बुधवार, 13 जुलाई 2011

पिछली बैठक की रिपोर्ट

रविवार, 10 जुलाई, 2011 को बैठक में चर्चा का विषय था, क्या मौजूदा भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों से देश में बुनियादी बदलाव का रास्ता खुलेगा?
इस विषय पर चर्चा के लिए सबलोग और संवेद पत्रिकाओं के संपादक किशन कालजयी और यूनीवार्ता के विधि संवादददाता सुरेश तिवारी अतिथि वक्ता के रूप में आमंत्रित किए गए थे.
अनिल दुबे ने चर्चा की प्रस्तावना में कहा कि भ्रष्टाचार कोई नया मुद्दा नहीं है, लेकिन अब ऐसा लगता है कि इसका परिमाण बड़ा हो गया है. कुछ लाख तक के भ्रष्टाचार की बात अब लाखों करोड़ों तक जा पहुँची है. वर्तमान भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि  अन्ना हज़ारे की पृष्ठभूमि की वजह से मध्यवर्ग उस आंदोलन से जुड़ गया, लेकिन इससे एक बात साफ़ हुई कि लोगों की वर्तमान पॉलिटिकल सिस्टम में दिलचस्पी नहीं है. उनका कहना था कि भ्रष्टाचार से निपटने के लिए बुनियादी ढाँचे को ठीक किया जाना चाहिए. भ्रष्टाचार आंदोलनों के संदर्भ में उन्होंने जानना चाहा कि क्या इस तरह के आंदोलन किसी बड़े सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन का कारक हो सकते हैं?
किशन कालजयी ने अनिल दुबे की इसी बात को सूत्र की तरह लिया कि भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं है. उन्होंने कहा कि अभिज्ञान शांकुतलम में इसका ज़िक्र है कि जब मछुआरे ने दुष्यंत की अंगूठी वापस की, तो राजा दुष्यंत ने मछुआरे को अंगूठी के मूल्य के बराबर का धन दिया. मछुआरे ने इसमें से आधी रकम नगर रक्षक को दे दी थी, जो राजा का साला था. इसके बाद किशन कालजयी ने 1930 के आसपास लिखी गई नमक का दरोगा कहानी का ज़िक्र किया. उन्होंने याद किया कि यह वही समय था, जब गांधीजी ने वॉयसराय को चिट्ठी लिखकर कहा था कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री की तनख़्वाह आम ब्रिटिश नागरिक की तनख़्वाह से 90 गुना है, लेकिन वॉयसराय आम भारतीय की औसत आय दो आने से हज़ारों गुना ज़्यादा (21 हज़ार रुपए) की तनख़्वाह क्यों लेते हैं. बाद में यही सवाल राममनोहर लोहिया ने भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर होने वाले खर्च को लेकर भी पूछा था.
उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार आंदोलन के हाल के इतिहास को देखें, तो दो बड़ी घटनाएँ याद आती हैं. एक तो जयप्रकाश का आंदोलन और दूसरी वीपी सिंह का आंदोलन. उनका कहना था कि जयप्रकाश के आंदोलन ने जनता पार्टी सरकार के गठन की नींव रखी, लेकिन वह भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लड़ने की बजाय आपसी कलह में ही उलझी रही. इसी तरह वीपी सिंह ने सरकार बनाने के बाद बोफ़ोर्स घोटाले का कुछ नहीं किया. उनका कहना है कि इन दोनों उदाहरणों से साफ़ है कि इस तरह के आंदोलनों से आप सत्ता को हिला तो सकते हैं, लेकिन परिवर्तन नहीं ला सकते.
उन्होंने कहा कि बाबा रामदेव की पकड़ लोगों पर ज़्यादा थी, लेकिन उन्होंने हल्केपन की बात की और मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया. वहीं अन्ना के आंदोलन में ज़्यादा एकजुटता दिखी. मीडिया ने भी इसे बढ़चढ़ कर दिखाया. उन्होंने सवाल उठाया लेकिन यही मीडिया पूर्वोत्तर राज्य की इरोम शर्मिला के मामले को उस तरह से क्यों नहीं दिखाता? उन्होंने कहा, "मेरी जानकारी के अनुसार अन्ना हज़ारे के आंदोलन को बिना कमर्शियल ब्रेक लिए लगातार दिखाने पर एक न्यूज़ चैनल को दो सौ करोड़ रुपयों का नुक़सान हुआ और इसकी भरपाई एक बड़े कॉर्पोरेट हाउस ने की."
किशन कालजयी ने कहा कि भ्रष्ट वही होता है, जिसके पास सत्ता है, ताक़त है. उनका कहना था कि शायद इसीलिए सरकारी महकमों में जितना भ्रष्टाचार है, उतना भ्रष्टाचार निजी क्षेत्र में नहीं है. उनका कहना था कि राजनीतिक भ्रष्टाचार का एक बड़ा स्रोत चुनाव है. यहाँ तक कि गाँव के मुखिया के चुनाव में भी वोट दो-दो तीन-तीन सौ रुपए में बिकते हैं. उनका कहना था कि भ्रष्टाचार के स्रोत को पकड़ने की ज़रूरत है.
उनका कहना था कि भ्रष्टाचार को भ्रष्टाचार कहने का साहस लोगों में जगाना होगा. और यह जागरूकता पैदा करने की ज़िम्मेदारी बु्द्धिजीवी वर्ग की है. आंदोलनों की सफलता के बारे में उन्होंने कहा कि भारत में लोगों के पास विचारों की कमी नहीं है लेकिन चरित्र की कमी है. उनका कहना था कि विचार के लिए तो महावीर, बुद्ध से लेकर गांधी तक हैं लेकिन चरित्र नहीं है. अन्ना का आंदोलन इसलिए सफल हुआ क्योंकि उनका एक चरित्र है. उनकी राय थी कि संकट चरित्र का है इसलिए हमें विचारों को जीना होगा और चरित्र गढ़ने होंगे.
चर्चा को आगे बढ़ाते हुए लाल रत्नाकर ने कहा कि कालजयी जी ने तमाम तरह के भ्रष्टाचार की बातें कहीं लेकिन उन्होंने सामाजिक भ्रष्टाचार को अनदेखा कर दिया, जबकि सामाजिक भ्रष्टाचार अपने आपमें बड़ी समस्या है.
विद्याभूषण अरोड़ा का कहना था कि ये अपने आपमें बड़ा सवाल है कि सरकारी लोगों और बिज़नेसमैन में कौन बड़ा भ्रष्टाचारी है. उन्होंने कहा कि कालजयी जी ने चुनाव में भ्रष्चाचार को ख़त्म करने की बात कही, लेकिन इसमें एक ख़तरा ये है कि इससे कहीं चुनाव की प्रक्रिया ही न बदल जाए, क्योंकि ये चुनाव प्रक्रिया ही है जो मायावती जैसे लोगों को सत्ता तक पहुँचा सकती है.
कृष्णा ने भ्रष्टाचार और कालेधन के बहुत से आंकड़े पेश किए. उन्होंने कहा कि विदेशों में जमा कालेधन की बात तो की जा रही है, लेकिन देश के भीतर चल रहे कालेधन की कोई बात नहीं कर रहा है, जबकि ये धन भी बहुत बड़ा है. उनका कहना था कि अन्ना के आंदोलन को जिस मध्यवर्ग का बड़ा समर्थन मिला वह वर्ग चाहता है कि भ्रष्टाचार तो दूर हो, लेकिन विकास भी चलता रहे. इस वर्ग का कहना है कि व्यवस्था में थोड़ा बदलाव होना चाहिए.
पार्थिव कुमार ने कहा कि मध्यवर्ग दरअसल सरकार का चेहरा है. इसलिए सरकार उनसे नरमी बरतती है और अन्ना के आंदोलन से बातचीत करती है, इससे सरकार की छवि सुधरती है. उनका कहना था कि ये सच है कि समाज में एकजुटता नहीं है, इसलिए सिविल सोसायटी के आंदोलनों के प्रति सरकार की प्रतिक्रिया दिल्ली में अलग और छत्तीसगढ़-झारखंड-उड़ीसा में अलग होती है. उन्होंने कहा कि सरकार अगर कहती है कि अन्ना की टीम पूरे समाज के प्रतिनिधि नहीं हैं, तो ऐसे में तो संसद भी हमारे समाज की पूरी प्रतिनिधि नहीं है. उन्होंने लोकपाल विधेयक पर सभी राजनीतिक दलों की एकजुटता पर सवाल उठाते हुए कहा कि सशक्त क़ानून तो छो़ड़ दीजिए, संसद में बैठे लोग तो यही नहीं चाहते कि क़ानून बने. उनका कहना था कि सुराख अगर कर दिया गया है तो ये तय है कि आने वाले दिनों में वह बड़ा होगा.
तड़ित कुमार ने कहा कि भ्रष्टाचार का अर्थ सिर्फ़ रिश्वतखोरी नहीं है, ऑफ़िस में जाकर काम न करना और कम काम करना भी भ्रष्टाचार है. उनका कहना था कि भ्रष्टाचार को ख़त्म करने के लिए दृढ़ इच्छा शक्ति वाले नेतृ्त्व की ज़रूरत है. उन्होंने इसका उदाहरण देते हुए कहा कि मुसोलिनी भले ही तानाशाह रहा हो, उसने इटली से माफ़िया का सफ़ाया कर दिया था, या इंदिरा गांधी जैसी नेता जिन्होंने इमरजेंसी लगाई. इमरजेंसी में बहुत कुछ हुआ जो बुरा था, लेकिन ट्रेनें समय से चलने लगीं थीं और लोग समय पर ऑफ़िस पहुँचने लगे थे. उनका कहना था कि ये उम्मीद करना कि कोई मूलभूत परिवर्तन होने जा रहा है,  भूल होगी.
प्रकाश का कहना था कि लोकतंत्र में सत्तारूढ़ पार्टी को अपनी छवि की चिंता होती है और इस छवि को लेकर जब सवाल उठाए जाते हैं तो सरकार मुद्दों पर विचार करना स्वीकार कर लेती है. इस समय यही हो रहा है. उन्होंने कहा  कि अभी सरकार को बहुत से काम करने हैं, जिसके लिए उसे बेहतर छवि की ज़रुरत है. प्रकाश का कहना है कि फिर भी यदि भ्रष्टाचार का सवाल उठा है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए.
रामशिरोमणि शुक्ला ने कहा कि जो कुछ भी अच्छा हो रहा है उसकी हवा निकालने की कोशिश की जा रही है. उनका कहना था कि देश में चुनाव आयोग ने अच्छा काम किया और इसी तरह से सूचना के अधिकार पर अच्छा काम हुआ है. लेकिन इरोम शर्मिला जैसी एक लड़की बरसों बरस से आंदोलन करती है और उसका सरकार नोटिस तक नहीं लेती. उन्होंने कहा कि निगमानंद की हरिद्वार में और नागनाथ की वाराणसी में हुई हालात पर भी बहुत हलचल नहीं होती. उनका कहना था कि जैसा भी हो इन आंदोलनों के तत्वों का स्वागत किया जाना चाहिए.
सुरेश तिवारी ने कहा कि पिछले दिनों न्यायपालिका में एक्टिविज़्म बढ़ा है, लेकिन न्यायपालिका भी भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं है. उन्होंने जजों की नियुक्ति का उदाहरण देते हुए कहा कि कॉलेजियम से संबंध होने न होने, किसी राजनेता से ताल्लुकात होने न होने का भी नियुक्ति पर फ़र्क पड़ता है. उनका कहना था कि जो जनहित याचिकाएँ समाज को प्रभावित करने वाली हैं, उनका स्वागत किया जाना चाहिए.
विनोद वर्मा ने कहा कि सिर्फ़ आर्थिक भ्रष्टाचार को दूर करने से काम नहीं चलने वाला है, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और नैतिक भ्रष्टाचार को भी साथ में ख़त्म करना होगा तब कहीं भ्रष्टाचार पूरी तरह से ख़त्म होगा. उनका कहना था कि अन्ना हज़ारे और बाबा रामदेव के आंदोलन में जो मध्यवर्ग भाग ले रहा था उनमें से ज़्यादातर अपने दैनिक कार्यों से निपटने के बाद मानो अपना पाप धोने के लिए इन आंदोलनों का हिस्सा हो रहे थे. इन आंदोलनों में वह वर्ग हिस्सा ही नहीं था, जो देश की आबादी का 70 प्रतिशत है और जिसकी आय 20 रुपए रोज़ से अधिक नहीं है. जब तक ये वर्ग आंदोलन का हिस्सा नहीं बनेगा, ये सवाल ही अप्रासंगिक है कि क्या इससे कोई परिवर्तन होने जा रहा है.
अंत में बैठक की ओर से अतिथिद्वय किशन कालजयी और सुरेश तिवारी का आभार प्रकट किया गया और भविष्य में बैठक का हिस्सा बने रहने का अनुरोध किया गया.

मंगलवार, 3 मई 2011

लाल रत्नाकार की पेंटिंग पर बैठक

०१ मई २०११ स्थान आर-२४,राजकुंज, राजनगर, गाजियाबाद |


इस बार की बैठक डा. लाल रत्नाकार की पेंटिंग और उनकी कला यात्रा पर
केंद्रित थी। पिछले महीने ही मंडी हाउस में उनकी कृतियों की प्रदर्शनी
लगाई गई थी और तभी से बैठक के साथी उस पर बहस करना चाहते थे। पहली मई को
हुई इस बैठक की शुरुआत लाल रत्नाकार ने ही की और बताया कि किस तरह वे
अपने गांव की दीवारों को कोयले और गेरू से रंगते हुए कला की ओर मुड़े।
दरअसल वहीं उनकी रचना प्रक्रिया के बीज पड़ गए थे। यह भी दिलचस्प है कि
वे स्कूल में विज्ञान के छात्र थे और तभी जीव विज्ञान के चित्र बनाते हुए
उनके लिए खुद को अभिव्यक्त करने का ऐसा फलक मिल गया, जो उन्हें देश की
कला दीर्घाओं तक ले आया। इसके बाद चर्चा की शुरुआत करते हुए जगदीश यादव
ने कहा कि रत्नाकार के अधिकांश चित्र में स्त्रियां खामोश नजर आती हैं।
उन्होंने सवाल किया कि आखिर सबको चुप क्यों किया गया है। उन्हें कुछेक
पेंटिग्स की कंपोजिशन को लेकर भी आपत्ति थी। बैठक के वरिष्ठ साथी तड़ित
दादा ने कहा, मैं अपने आसपास जो कुछ घटता देख रहा हूं, मेरे लिए पेंटिग
भी उसी का हिस्सा है। रत्नाकार के चित्र बहुत खामोश लगे, कुछ जगह रंग
अटपटा भी लगा। कहीं-कहीं चित्रकार की जिद भी दिखती है। सुदीप ठाकुर ने
कहा कि रत्नाकार की पेंटिंग में एक तरह का सिलसिला दिखता है और लगता है
कि हर अगली पेंटिंग पिछली की कड़ी है। जिस तरह से कहा जाता है कि कोई भी
कवि जिंदगी भर एक ही कविता लिखता है शायद चित्रों के बारे में भी ऐसा ही
है।


प्रकाश ने रत्नाकार की पेंटिंग के बहाने कला के तार्किक आयाम की चर्चा
की। प्रकाश के मुताबिक रत्नाकार जी की लाइनें मजबूत हैं। चित्रों में
महिलाएं पुरुषों से सख्त नजर आती हैं, यदि मुख्य आकृति के साथ पूरा
परिवेश होता तो शायद ये चित्र कहीं ज्यादा प्रभावी होते। पार्थिव कुमार
ने जानना चाहा कि चित्र बनाना या पेंटिंग बनाना कहानी लिखने से कितना अलग
है? दोनों रचनाकर्म में क्या फर्क है। राम शिरोमणि ने कहा कि रत्नाकार के
चित्र खूबसूरत लगते हैं, लेकिन पात्र मूक लगते हैं। उनके मुताबिक जीवन
सीधा-सपाट नहीं है। यदि चित्रों में हरकत नहीं होगी तो वे निर्जीव
लगेंगे। उन्होंने कहा कि रचना से पता चलता है कि वस्तुस्थिति कैसी थी।
रचनाकार उसमें जोड़ता-घटाता है। प्रो. नवीन चाँद  लोहनी ने  कहा कि अंत तय कर कहानी
नहीं लिखी जा सकती। यही बात  कला के साथ है। व्यावसायिक दृष्टिकोण अलग हो
सकते हैं। उन्होंने कहा कि रत्नाकार के चित्रों के चेहरे कई बार मेरे
जैसे लगते हैं, गांव के चेहरे लगते हैं। उन्होंने इन चित्रों के मूक होने
के तर्क को खारिज करते हुए कहा कि कई बार मूक वाचन का भी अर्थ होता है।
विनोद वर्मा ने दिलचस्प लेकिन महत्वपूर्ण बात कही कि रचना और रचनाकार
दोनों को जानने से कई बार निष्पक्षता और निरपेक्षता खत्म हो जाती है।
इसमें खतरा है और उन्हें यह खतरा रत्नाकार और उनके चित्रों के साथ भी
महसूस हुआ। उनके चित्रों पर लिखी अपनी दो कविताएं- सुंदर गांव की औरतें
और कहां हैं वे औरतें, भी पढ़ी। उन्होंने कहा कि रत्नाकार के चित्रों को
देखकर लगता है कि वे किसी यूटोपिया की बात कर रहे हैं।  ये औरतें ऐसी
हैं, तो गांव की औरतें ऐसी नहीं होतीं। उनके चित्र एक धारा के दिखते हैं,
मगर धारा का एक खतरा भी है कि यदि धारा कहीं पहुंच नहीं रही है। विनोद के
मुताबिक रत्नाकार के चित्रों में चकित करने वाला तत्व नदारद है।
अंत में लाल रत्नाकार ने कहा कि उन्हें बैठक के जरिये अपने चित्रों को नए
सिरे से देखने का मौका मिला। विनोद के तर्कों से असहमत होते हुए उन्होंने
कहा कि मैं जिस परिवेश से आया हूं वहां चकित करने वाले तत्व नहीं हैं।
कुमुदेश जी और श्री कृष्ण जी  की उपस्थिति श्रोताओं जैसी ही रही .

बुधवार, 27 अप्रैल 2011

बैठक में 17 अप्रैल को हुई चर्चा की रिपोर्ट


पिछली बैठक में चर्चा का विषय था सूफीवाद। पार्थिव और चंद्रभूषण ने इस
बैठक में सूफीमत पर प्रकाश डाला और बाद में सदस्यों ने इस पर चर्चा की।


पार्थिव ने चर्चा शुरु करते हुए कहा कि उन्होंने सिद्धांत के तौर पर

सूफीवाद को हमेशा जटिल पाया है। उनका कहना था कि सूफीवाद एक मध्ययुगीन
विचारधारा है और यह कहना कठिन है कि इस समय यह कितना प्रासंगिक है।



उन्होंने इस धारणा का खंडन किया कि भारत में सूफीवाद मुसलमान हमलावरों के

साथ आया। उन्होंने कहा कि वास्तव में इस्लाम तो भारत में सातवीं सदी में
ही आ गया था। हिंदू धर्म और इस्लाम के बीच संपर्क तभी से रहा है। सच तो
यह है कि इस देश में सूफीवाद की बुनियाद डालने वाले ख्वाजा मोइनुद्दीन
चिश्ती भारत में मोहम्मद गोरी से दो साल पहले ही पहुंच चुके थे। लिहाजा
यह कहना सही नहीं होगा कि सूफीवाद मुसलमान शासकों का उदार नकाब था जिसके
जरिए उन्होंने अपने जालिम चेहरे को ढंकने और हिंदुस्तानी अवाम को लुभाने
की कोशिश की।



उन्होंने बताया कि सूफियों के चार प्रमुख सिलसिलों नक्शबंदी, सोहरावरदी,

कादिरिया और चिश्तिया में से भारत में चिश्तियों की ही प्रमुखता है।
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती अजमेरी इसी सिलसिलें के थे जिसे बाद में
कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, हजरत निजामुद्दीन औलिया और नसीरुद्दीन चिराग
देहली ने आगे बढ़ाया।



पार्थिव ने कहा कि इस्लाम अपने मूल रूप में सबसे सरल धर्म रहा है। वह एक

निराकार परम शक्ति की बात करता है और उपासना की किसी जटिल पद्धति को
अपनाने के बजाय अच्छे और समाजोपयोगी आचरण पर जोर देता है। इस्लाम मानता
है कि अल्लाह तक कोई नहीं पहुंच सकता। अलबत्ता पैगंबर मोहम्मद के दिखाए
रास्ते पर चलते हुए उसके ज्यादा से ज्यादा करीब पहुंचा जा सकता है। लेकिन
खिलाफत विलासी उमय्यदों के हाथ में जाने के बाद इसका रूप बिगड़ता गया।
इसका दायरा तंग होता गया और इसमें नए विचारों के लिए जगह भी घटती गई।



सूफीवाद ने इस्लाम में बढ़ती कट्टरता और कठोर शरीयती व्यवस्था से निराश

मुसलमानों को एक नई उम्मीद दी। इसने रक्स (नृत्य) और समां (संगीत) को
आराधना के तरीके के रूप में स्वीकार किया जिनका इस्लाम में कड़ा निषेध
था। इसने वली को आशिक या माशूक मान कर उसका गुणगान करने की परंपरा डाली।
यह परंपरागत इस्लामी सोच के खिलाफ जरूर था मगर इससे सूफीवाद का इस्लाम के
बाहर भी प्रसार हुआ।



लेकिन सूफी परंपरा में भी समय के साथ रूढि़वाद घर करता गया है। इसमें वली

की भूमिका नैतिक पथ प्रदर्शक (मुर्शिद) की अधिक और दुखदर्द से निजात
दिलाने वाले (पीर) की कम रही है। लेकिन धीरे-धीरे मुर्शिद की भूमिका खत्म
होती गई और सिर्फ पीर रह गए।



पार्थिव का कहना था कि नसीरुद्दीन चिराग दिल्ली के बाद सूफीवाद अपनी राह

से भटक गया। सूफी संत अपने उत्तराधिकारी का चयन करने में काफी सावधानी
बरतते थे। अमीर खुसरो सिर्फ इसलिए निजामुद्दीन औलिया के उत्तराधिकारी
नहीं बन सके कि वह सुलतान के दरबार में थे। संत बनने की ईसाइयों जैसी कोई
स्पष्ट परंपरा नहीं रहने के कारण वलियों की नाकाबिल संतानें, समाज में
रसूख वाले भ्रष्ट व्यक्ति, छोटे मोटे करिश्मे दिखाने में माहिर मदारी और
नीम हकीम किस्म के लोग वली बन गए।



इस तरह प्रेम, करुणा और नैतिक मूल्यों पर आधारित एक उदार मत अपनी राह से

भटक गया। खानकाहों में आम लोगों के बीच पला बढ़ा सूफी संगीत अमीरों की
बैठकों में सिमट गया। दरगाहों पर अपने दुखदर्द का हल ढूंढने वालों का
मेला अब भी लगता है मगर इसमें शरीक होने वालों का सूफीवाद से कोई नाता
नहीं रहा है। सूफीवाद अपने सिद्धांत में अब भी प्रासंगिक है मगर उसके
मौजूदा स्वरूप में आधुनिक समाज के लिए शायद ही कुछ हो।



चंद्रभूषण ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि किसी भी धर्म के दो हिस्से

होते हैं। एक विधि और दूसरा निषेध। विधि यानी धर्म का एक परिचय। लेकिन
निषेध धर्म का असली चेहरा होता है और वही धर्म को उदार और कट्टर बनाता
है।



उनका कहना था कि सूफीवाद में निषेध कम हैं इसलिए इसमें तांकझांक की

गुंजाइश बनी रही। चूंकि वहां निषेध कम है इसलिए उसमें कल्पनाएं भी बहुत
हैं। उन्होंने भारत से बाहर सूफी संप्रदाय पर भी चर्चा की और कहा कि
तुर्की में सूफी संप्रदाय का बहुत प्रभाव है और आज भी उनके जैसा रक्स कोई
नहीं करता।



चंद्रभूषण का कहना था कि राजसत्ता के साथ सूफी कभी नहीं रहे। वे हमेशा

शुद्धतावाद के खिलाफ रहे क्योंकि वे मानते रहे कि शु्द्ध धर्म कुछ होता
ही नहीं।



उन्होंने कहा कि सूफी एक ऐसा मत है जिसमें ग्रे एरिया बहुत है। इसकी वजह

से वहां व्यक्ति ही नहीं परंपराएं भी आ जा सकती हैं। वह इस्लाम की तरह
उदार रहा है कि आप चाहें तो सूफी धर्म को अपना सकते हैं। वह यहूदी धर्म
की तरह कट्टर कभी नहीं हुआ कि कोई चाहे भी तो यहूदी नहीं बन सकता।



चर्चा में अनिल दुबे ने भी अपने विचार रखे।



इस चर्चा से पहले जगदीश यादव ने दो हफ़्ते पहले बैठक के सदस्यों के साथ की

गई विभिन्न ऐतिहासिक स्थलों की यात्रा की तस्वीरों का एक स्लाइड शो
प्रदर्शित किया, जिसकी सभी सदस्यों ने काफी सराहना की।
बैठक के सभी सदस्यों में इस बात पर सहमति बनी कि इस तरह के ऐतिहासिक
स्थलों की यात्रा का क्रम जारी रखा जाए और सूफीवाद पर और चर्चा की जाए।

जगदीश यादव के चित्रों की विडिओ क्लिप -
दौरे गुजिश्ता-बैठक महरौली विरासत यात्राः एक रिपोर्ट
अकीदतों के मेलमिलाप का शहर

 दिल्ली परिवहन निगम की एक चमचमाती लाल एयरकंडिशंड बस टूटीफूटी सड़क पर
हिचकोले खाती हुई बाईं ओर मुड़ी और टर्मिनल के एक कोने में जाकर खड़ी हो
गई। उसके पहियों से उड़े धूल के गुबार ने सड़क के दूसरी तरफ खड़े आदम खां के
मकबरे को पूरी तरह ढंक लिया। लेकिन 16 वीं सदी का यह टूटाफूटा मकबरा अगले
ही पल अपना बदन झाड़ कर फिर से खड़ा था। गुजरे और मौजूदा जमानों के बीच
तालमेल बिठाने की महरौली की कवायद सूरज उगने के साथ ही शुरू हो चुकी थी।

 किसी टाइम मशीन जैसी ही है लगभग 1300 साल पुरानी महरौली। इसकी तंग
गलियों से गुजरते हुए सदियों का फासला पल भर में तय हो जाता है। अभी
तोमरों के लालकोट में और अगले ही पल चौहानों के किला राय पिथौरा में।
गुलामों की गंधक बावली और मुगलिया दौर के झुटपुटे में बने जफर महल के बीच
की दूरी भी कुछ मिनटों की ही है।

 महरौली गांव की विरासत यात्रा पर निकले हम 10 दीवानों का पहला पड़ाव 19
वीं सदी की शुरुआत में बना योगमाया मंदिर था। सादे ढंग से बने इस मंदिर
की कोई खास इमारियाती अहमियत नहीं है। लेकिन आठवीं सदी के लालकोट के
खंडहरों पर बना यह मंदिर दिल्ली के मजहबी भाईचारे की मिसाल है। बादशाह
अकबर द्वितीय के जमाने में शुरू की गई फूलवालों की सैर के दौरान हर साल
इस मंदिर में फूलों का पंखा चढ़ाया जाता है।

 अकबर द्वितीय के बेटे मिर्जा जहांगीर ने 1812 में लाल किले में ब्रिटिश
रेसिडेंट आर्किबाल्ड सेटन पर गोली चला दी थी। सेटन इस हमले में बच गया और
उसने मिर्जा जहांगीर को गिरतार कर इलाहाबाद भिजवा दिया। मिर्जा जहांगीर
की मां मुमताज बेगम ने मन्नत मांगी कि उसके बेटे को रिहा कर दिया गया तो
वह कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह पर फूलों की चादर चढाएगी।

 मिर्जा जहांगीर दो साल बाद रिहा हो गया और उसकी मां ने शेख निजामुद्दीन
औलिया की दरगाह से पैदल चल कर कुतुब साहब की मजार पर फूलों की चादर चढ़ाई।
इसके साथ ही योगमाया मंदिर में फूलों का पंखा चढ़ाया गया और महरौली में
सात दिनों तक जश्न चलता रहा। यह सालाना जश्न अब भी हर साल बारिशों के बाद
मनाया जाता है और फूलवालों की इस सैर में सभी मजहबों के लोग शिरकत करते
हैं।

 योगमाया मंदिर से हम पैदल आदम खां के मकबरे तक पहुंचे। आदम खां बादशाह
अकबर की दाई मां माहम अंगा का बेटा था। उसने अकबर की दूसरी दाई मां जीजी
अंगा के शौहर अतगा खान की 1561 में हत्या कर दी। इसके बाद बादशाह ने आदम
खां को आगरा के किले की दीवार से नीचे फिंकवा दिया। माहम अंगा ने अपने
बेटे के मरने के गम में कुछ ही दिन बाद दम तोड़ दिया। अकबर के हुक्म पर ही
आदम खां और उसकी मां को इस मकबरे में दफनाया गया।

 एक ऊंचे चबूतरे पर बना आठ कोनों वाला यह मकबरा अपनी बनावट से लोधियों
के समय का लगता है। इसके ऊपर आधे चांद की शक्ल का गुंबद है और हर तरफ
बरामदा और अंदर घुसने का रास्ता। इस मकबरे के पीछे तोमर राजा अनंगपाल के
शहर लालकोट के खंडहर अब भी दिखाई देते हैं।

 हम सड़क पार कर एक संकरी सी गली से गुजरते हुए गंधक की बावली तक पहुंचे।
पांच मंजिल की इस खूबसूरत बावली को सुलतान अलतमश ने 13 वीं सदी में कुतुब
साहब के इस्तेमाल के लिए बनवाया था जिनकी दरगाह पास ही है। पतले खंभों
वाली इस बावली के दक्षिण की ओर गोल कुआं है और हर मंजिल पर बरामदा।
दिल्ली की सबसे पुरानी इस बावली का पानी अब लगभग पूरी तरह सूख चुका है।

 13 वीं सदी के सूफी संत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह गए बिना
महरौली की सैर अधूरी रहती है। कुतुब साहब अजमेर के ख्वाजा मोइनुद्दीन
चिश्ती के मुरीद थे। उनकी दरगाह के अहाते में मोइनुद्दीन चिश्ती के ही
मुरीद रहे शेख हमीदुद्दीन नागौरी भी दफन हैं। दरगाह के अंदर जमातखाना,
वजूखाना, मस्जिद और नौबतखाना को बादशाहों ने अलग- अलग समय में बनवाया था।

 दरगाह के नजदीक हमने रंगबिरंगी टोपियां और फूल खरीदे और अंदर काफी देर
तक कव्वालियों का मजा लिया। दरगाह के अजमेरी दरवाजे के नजदीक दो मीनारों
और तीन मेहराबों वाली मोती मस्जिद है जिसे औरंगजेब के बेटे बहादुर शाह
प्रथम ने बनवाया था। संगमरमर की इस मस्जिद की बनावट लाल किले में औरंगजेब
की बनवाई मोती मस्जिद जैसी ही है।

 अजमेरी दरवाजे से कुछ ही दूरी पर मुगलों की आखिरी इमारतों में से एक
जफर महल है जिसे अकबर द्वितीय ने 18 वीं सदी में बनवाया था। अंतिम मुगल
बादशाह बहादुर शाह जफर के समय में बनाए गए इस महल का दरवाजा काफी भव्य
है। लाल बलुआ पत्थर और संगमरमर से बने तीन मंजिले इस महल का ज्यादातर
हिस्सा ढह चुका है। अकबर द्वितीय समेत मुगल घराने के कई जानीमानी
हस्तियां इस महल की चहारदीवारी में दफन हैं।

 जफर महल से हौज शम्सी तक का लगभग एक किलोमीटर का सफर तय करने में हमें
पूरा घंटा लग गया। संकरी सड़क पर जबर्दस्त भीड़भाड़ में हमारी कारों के पहिए
थम गए। हौज शम्सी के पार्किंग की जगह ढूंढना भी टेढ़ी खीर था। इन
परेशानियों से जूझने के बावजूद हम जहाज महल तक पहुंचने में कामयाब रहे जो
हमारे इस सफर की आखिरी मंजिल था।

 हौज शम्सी के एक छोर पर जहाज महल को लोधियों के जमाने में सराय के तौर
पर बनाया गया था। दूर से देखने पर यह हौज शम्सी में तैरता दिखाई देता है
और इसीलिए इसे जहाज महल कहा गया। पूरब की ओर दरवाजा वाले इस सराय में एक
दालान के इर्दगिर्द मेहराबदार कोठरियां बनी हैं। इसमें एक छोटी से मस्जिद
भी हुआ करती थी और नफीस छतरियां इस इमारत की खूबसूरती को बढ़ाती है। इस
इमारत का ज्यादातर हिस्सा टूटीफूटी हालत में है।

 हौज शम्सी को सुलतान अलतमश ने 1230 में बनवाया था। कहते हैं कि उसे
पैगंबर मोहम्मद ने सपने में इस जगह पर तालाब बनाने का हुक्म दिया था।
तालाब के एक छोर पर लाल बलुआ पत्थर का दो मंजिला मंडप है। बारह खंभों पर
टिके इस मंडप के बारे में कहानी है कि सुलतान को इस जगह मोहम्मद साहब के
घोड़े के खुरों के निशान मिले थे। यह मंडप कभी तालाब के बीच में हुआ करता
था मगर जमीन माफिया के अवैध कब्जों ने इसे एक किनारे धकेल दिया है। दो
हेक्टेयर में फैले इस तालाब कि किनारे सत्रहवीं सदी के फारसी के मशहूर
लेखक अब्दुल हक देहलवी दफन हैं।

 तकरीबन 1300 साल का सफर तीन घंटों में पूरा करने के बाद हम बुरी तरह थक
चुके थे। ढाबे में बैठ कर चाय की चुस्की लेते हुए हमने चारों ओर  नजर
दौड़ाई। हर तरफ इंसानों का रेला और शोरशराबा। मिर्च मसाले से लेकर
हार्डवेयर और हुक्के तक की दुकानें। रेहड़ी-खोमचा वालों की जमघट। अकीदतों
के मेलमिलाप का शहर महरौली अब हिंदुस्तान के किसी भी छोटे से कस्बे में
तब्दील हो गया है।


रविवार, 13 फ़रवरी 2011