शनिवार, 27 नवंबर 2010

बैठक की रिपोर्ट


इक्कीस नवंबर, कृष्ण भवन, वैशाली में हुई बैठक में सदस्यों ने अपनी - अपनी रचनाओं का पाठ किया । शुरुआत हुई डा. लाल रत्नाकर की कविताओं से । उन्होंने कविता सुनाने के पहले उन्होंने कहा कि किन मनस्थितियों में ये कविताएं लिखी गयी हैं। उन्होंने कहा कि उनकी कविताएं दलितों और समाज में उनकी हैसियत के बारे में है। उनकी कविताओं से ये साफ था कि वो दलितों के दर्द से वाकिफ हैं और ये दर्द बगैर किस ऐलान के बड़े ही सहज ढंग से उनकी कविताओं में झलकता है। यही उनकी कविता की ताकत है।


डा. लाल के बाद शंभू भद्रा ने कोशी की मार से सड़क पर आ गयी एक महिला की पीड़ा को कविता के माध्यम से कागज पर उतारा। शंभू मिथिला से ताल्लुक रखते हैं और उनका घर सुपौल जिले में पड़ता है। यही वजह है कि मैथिली में लिखी उनकी कविता में सिर्फ सच्चाई थी। और सच्चाई ये है कि लगभग हर साल कैसे कोशी हजारों परिवारों को सड़कों पर लाकर उन्हें भीख मांगने को मजबूर कर देती है जबकि सरकार अंधी - बहरी बनी सरकारी आंकड़े ठीक करने में लगी रहती है।

शंभू के बाद पार्थिव ने अपनी कहानी सुनाई। उनकी कहानी का नाम था -एक पुरानी कहानी-....

दरअसल उनकी कहानी सिर्फ कहानी नहीं थी बल्कि उत्तर प्रदेश, पंजाब, और हरियाणा की लोक गाथाओं के एक बेहद पुरातन पात्र को सामने लाने, उसमें प्राण प्रतिष्ठा करने की सफल कोशिश थी। पार्थिव की ये कहानी एक दलित की कहानी थी, इस कहानी से साफ हो जाता है कि दलित सिर्फ आज अपने हक और अधिकार के लिए नहीं लड़ता बल्कि सैकड़ों, हजारों साल पहले भी वह दमन और गैर - बराबरी के खिलाफ ब्रह्मणों और क्षत्रियों को ललकारने का माद्दा रखते था। किसी लोक कथा के चरित्र को अपनी भाषा और अपने शिल्प से सबके सामने ला खड़ा करना आसान नहीं होता लेकिन पार्थिव ने ये काम कर दिखाया। उन्हें बधाई।

पार्थिव की सशक्त कहानी के बाद विनोद वर्मा ने अपनी कविताओं के माध्यम से बताया कि कैसे प्रतीक्षा हमारे जीवन के हर पल को छूती है, हमारी जिंदगी, हमारा जीना - मरना सब कुछ प्रतीक्षा से जुड़ा है। जीवन के हर शह में प्रतीक्षा है।

इसके बाद तड़ित दा ने अपनी कविताएं पढ़ी। तड़ित दा की कविताओं में जीवन का सच था, उन्होंने कहा कि जीवन में संघर्ष होता है, निराशा भी होती है लेकिन इन सबके बावजूद एक उम्मीद बची रहती है। जुगनू नाम की उनकी कविता में यही उम्मीद दिखती है। यही उनकी कविता का सच था और शायद हम सबके जीवन का भी। हिटलर शीर्षक से लिखी उनकी कविता का संदेश यह था कि अन्याय से आप लड़ सकते हैं, उसे खत्म कर सकते है लेकिन आप उससे महज मतभेद रखकर उसके साथ रह नहीं सकते ।

कुल मिलाकर बैठक का ये दिन शानदार रहा और इस मायने में यादगार भी कि सदस्य कविता और कहानी के माध्यम से सबसे रुबरु हुए और अपनी बात सबके सामने रखी। इस बैठक में राम शिरोमणी शुक्ला, डा. अरविंदन, केवल कुमार, अनिल दुबे, जगदीश यादव और श्रवण कुमार गुप्ता उपस्थित थे। सबने माना कि बैठक में अब रंग आने लगा है और अब औपचारिकता की जगह गर्मजोशी ने ले ली है। आमीन।

गुरुवार, 25 नवंबर 2010

बुधवार, 17 नवंबर 2010

बेईमानों के बीच ईमानदार

बी.बी.सी.हिंदी से साभार -

विनोद वर्मा विनोद वर्मा | बुधवार, 17 नवम्बर 2010, 13:26 IST

मैं एक प्रशासनिक अधिकारी को जानता हूँ जिनकी ईमानदारी की लोग मिसालें देते हैं.

वे एक राज्य के मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव थे लेकिन लोकल ट्रेन की यात्रा करके कार्यालय पहुँचते थे. वे मानते थे कि उन्हें पेट्रोल का भत्ता इतना नहीं मिलता जिससे कि वे कार्यालय से अपने घर तक की यात्रा रोज़ अपनी सरकारी कार से कर सकें.

वे ब्रैंडेड कपड़े ख़रीदने की बजाय बाज़ार से सादा कपड़ा पहनकर अपनी कमीज़ें और पैंट सिलवाते थे.

जिन दिनों वे मुख्यमंत्री के सचिव रहे उन दिनों सरकार पर घपले-घोटालों के बहुत आरोप लगे. उनके मंत्रियों पर घोटालों के आरोप लगे. लोकायुक्त की जाँच भी हुई. कई अधिकारियों पर उंगलियाँ उठीं.विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त भी हुई. कहते हैं कि पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को अच्छा चंदा भी पहुँचता रहा.

लेकिन वे ईमानदार बने रहे. मेरी जानकारी में वे अब भी उतने ही ईमानदार हैं.

उनकी इच्छा नहीं रही होगी लेकिन वे बेईमानी के हर फ़ैसले में मुख्यमंत्री के साथ ज़रुर खड़े थे. भले ही उन्होंने इसकी भनक किसी को लगने नहीं दी लेकिन उनके हर काले-पीले कारनामों की छींटे उनके कपड़ों पर भी आए होंगे.

भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सत्यनिष्ठा और ईमानदारी पर कोई सवाल नहीं उठाना चाहता. अगर कोई चाहे भी तो नहीं उठा सकता क्योंकि वे सच में ऐसे हैं. वे सीधे और सरल भी हैं.

राजीव गांधी के कार्यकाल को इतिहास का पन्ना मान लें और ओक्तावियो क्वात्रोची को उसी पन्ने की इबारत मान लें तो सोनिया गांधी पर भी कोई व्यक्तिगत आरोप नहीं हैं. कम से कम राजीव गांधी के जाने के बाद वे त्याग करती हुई ही दिखी हैं. एक दशक तक राजनीति से दूर रहने से लेकर प्रधानमंत्री का पद स्वीकार न करने तक.

लेकिन इन दोनों नेताओं की टीम के सदस्य कौन हैं? दूरसंचार वाले ए राजा, राष्ट्रमंडल खेलों वाले सुरेश कलमाड़ी और आदर्श हाउसिंग सोसायटी वाले अशोक चव्हाण.

अटल बिहारी वाजपेयी की गिनती हमेशा बेहद ईमानदार नेताओं में होती रही है. लेकिन उनके प्रधानमंत्री रहते तहलका कांड हुआ, कारगिल में मारे गए जवानों के लिए ख़रीदे गए ताबूत तक में घोटाले का शोर मचा और पेट्रोल पंप के आवंटन में ढेरों सफ़ाइयाँ देनी पड़ीं. यहाँ तक के उनके मुंहबोले रिश्तेदारों पर भी उंगलियाँ उठीं.

ऐसे ईमानदार राजनीतिज्ञ कम ही सही, लेकिन हैं. लेकिन वो किसी न किसी दबाव में अपने आसपास की बेईमानी को या तो झेल रहे हैं या फिर नज़र अंदाज़ कर रहे हैं.

ऐसे अफ़सर भी बहुत से होंगे जो ख़ुद ईमानदार हैं लेकिन बेईमानी के बहुत से फ़ैसलों पर या तो उनके हस्ताक्षर होते हैं या फिर उनकी मूक गवाही होती है.

यह सवाल ज़हन में बार-बार उठता है कि इस ईमानदारी का क्या करें? अपराधी न होना अच्छी बात है लेकिन समाज के अधिकांश लोग अपराधी नहीं हैं. लेकिन ऐसे लोग कम हैं जिनके पास हस्तक्षेप का अवसर है लेकिन वे हस्तक्षेप नहीं कर रहे हैं. जो लोग अपराध के गवाह हैं उन्हें भी क्या निरपराध माना जाना चाहिए? क्या वे निर्दोष हैं?

एक तर्क हो सकता है कि बेईमानों के बीच ईमानदार बचे लोगों की तारीफ़ की जानी चाहिए. लेकिन यह नहीं समझ में नहीं आता कि बेईमान लोगों के साथ काम कर रहे ईमानदार लोगों की तारीफ़ क्यों की जानी चाहिए? बेईमानी को अनदेखा करने के लिए या उसके साथ खड़ा होने के लिए दंड क्यों नहीं दिया जाना चाहिए?

कालिख़ के बीच झक्क सफ़ेद कपड़े पहनकर घूमते रहने की अपनी शर्तें होती हैं. और कितने दिनों तक लोग इन शर्तों के बारे में नहीं पूछेगें?

सोमवार, 8 नवंबर 2010

ओबामा की भारत यात्रा


ऐसे समय जब वैचारिक क्षुद्रता बढ़ती जा रही हो और गंभीर तथा वैज्ञानिक चिंतन का सर्वथा संकट दिख रहा हो, तब बैठक की बैठकों में समसामयिक विषयों पर हो रही विचारोत्तेजक बहसें चीजों को बेहतर तरीके से समझने के लिए किसी के लिए भी मददगार हो सकती हैं। हाल के समय में प्रायः यह माना जाने लगा है कि अब किसी विषय पर समग्र रूप से चिंतन-मनन वाले मंच बहुत कम बचे हैं। कभी ऐसा दौर हुआ करता था जब राजनीतिक और सामाजिक संगठन इस काम को किया करते थे और उसका प्रभाव भी समाज और देश पर दिखाई पड़ता था। तमाम राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन इसके उदाहरण के रूप में देखे जा सकते हैं। इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा आज के दौर में यह काम कोई नहीं कर रहा है। इसके उलट अब तो चीजों को गड्ड मड्ड करने की जैसे सुनियोजित कोशिश की जा रही है। बुराइयों को महिमामंडित करने और समस्याओं को उलझाने की सायास प्रयास किए जा रहे हैं। ऐसे वक्त इस बात की बेहद जरूरत है कि किसी विषय पर समग्र रूप से और मानवीय दृष्टिकोण के साथ विचार-विमर्श किया जाए। यह भी इसके लिए हमेशा उन कुछ लोगों की तरफ ही न देखने को मजबूर रहा जाए जो अपने विषयों के प्रकांड पंडित माने जाते हैं बल्कि खुद के उन अपनों से भी कुछ सीखने समझने की कोशिश की जानी चाहिए कहीं ज्यादा बेहतर और वैज्ञानिक तरीके से सोचते हैं और जिनकी सोच देश और समाज के लिए ज्यादा अहमियत हो सकती है। कहना होगा कि यह काम अपने छोटे से प्रयास में बैठक की ओर से बेहद संजीदगी के साथ किया जा रहा है। कश्मीर समस्या और अयोध्या मामले पर हुई इसकी पिछली दो गोष्ठियां किसी के लिए भी उत्साहित करने वाली हो सकती होंगी जिन्होंने इसमें शिरकत होगी या इसकी रिपोर्ट जिसने पढ़ी होगी। हमें यह बताते हुए अच्छा लग रहा है कि यह एक गंभीर और सकारात्मक प्रयास है जिससे हर उस व्यक्ति को लाभ होगा जो किसी विषय को समग्र रूप से जानना-समझना चाहता होगा।

इसी क्रम में रविवार सात नवंबर को कृष्ण भवन में बैठक की गोष्ठी में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की भारत यात्रा पर संगोष्ठी हुई जिसमें विभिन्न वक्ताओं ने अनेकानेक पक्षों पर भारत-अमेरिका संबधों पर विस्तार से बातचीत की। शुरुआत विनोद वर्मा ने की। उन्होंने बिल क्लिंटन और जार्ज बुश की यात्रा के संदर्भ में कहा कि बराक ओबामा के भारत आने पर उस तरह का उत्साह यहां के लोगों में नहीं दिखाई दे रहा है जैसा पूर्व में आए दोनों अमेरिकी राष्ट्रपतियों के आने के समय दिखा था और इसके पीछे शायद सबसे बड़ा कारण उनका अश्वेत होना है। उन्होंने इसका जिक्र भी किया कि कैसे बुश को छूने के लिए कई सांसद तक बिछे पड़ रहे थे। उन्होंने उस हार का जिक्र भी किया जो ओबामा अमेरिका में हुए चुनाव में झेल कर ओबामा यहां आए हैं। लेकिन उन्होंने भारत की इस मामले में तारीफ की कि अब वह अपनी आर्थिक कमजोरियों से लगातार उबर रहा है और यह पहला मौका है जब अमेरिका के साथ बराबरी के साथ खड़ा होने की स्थिति में आ रहा है। ओबामा के साथ सौदे भी बराबरी के स्तर पर किए गए। ऐसा तब है जब अमेरिका गंभीर आर्थिक मंदी को झेल चुका है और हमारी अर्थव्यवस्था लगातार मजबूत होती जा रही है। हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि इससे पहले तक अमेरिका भारत को छोटे भाई की तरह मानता रहा है। उन्होंने हालांकि इसकी आलोचना की कि ओबामा ने मुंबई में आतंकवाद और हेडली पर स्पष्ट कुछ भी नहीं कहा। इसी तरह कश्मीर पर ढुलमुल रवैया अख्तियार किया। थोड़ा विस्तार में जाते हुए उन्होंने कहा कि अमेरिका लाचार की तरह भारत आया है कि हमें बाजार दो। इसके बावजूद हमारी मानसिकता अभी भी याचक जैसी ही दिखती है। हम सब्सिडी उसी के कहने पर अपने यहां खत्म करते जा रहे हैं जबकि इसके उलट अमेरिका में ओबामा इसे जारी रखे हुए हैं। हम अपनी वर्कफोर्स वापस करने की स्थिति में नहीं जबकि ओबामा आउटसोर्सिंग खत्म करने पर तुले हुए हैं।
इसके बाद चर्चा को आगे बढ़ाया सुदीप ने। उनका कहना था कि ओबामा एक व्यापारी की तरह निकले हैं। इसीलिए उन स्थानों को चुना है जहां उन्हें व्यापार की संभावनाएं दिख रही हैं। लेकिन वह पाकिस्तान नहीं जा रहे हैं। इसका भी एक खास संदेश है। संभवतः इस मामले पर ओबामा साफ हैं कि वे केवल अमेरिका के लिए निकले हैं। वे अपने यहां रोजगार बढ़ाना चाहते हैं। अब यह भारत को देखना था कि वह अमेरिका और ओबामा की कमजोरियों को कैसे अपने पक्ष में भुना सकते थे जो करने में भारत असफल रहा है। भारत अपनी शर्तों पर अमेरिका के साथ सौदेबाजी कर सकता था जो वह नहीं कर पाया।
शंभू भद्रा का कहना था कि यह पूरी तरह कारोबारी यात्रा है। आर्थिक मंदी के कारण अमेरिका की हालत बेहद खस्ता है। कई पैकेज देने के बाद भी अमेरिका की आर्थिक स्थिति में कोई सुधार नहीं आ पाया है। उन्होंने इसका बहुत स्पष्ट उल्लेख किया कि रिलायंस और स्पाइस जेट खुद अमेरिका में इंट्री की कोशिश में लगे हुए हैं। उन्होंने कहा कि अमेरिकी निवेश भारत में इंफ्रास्टक्चर में नगण्य है। वीजा और आउटसोर्सिंग नीति में बदलाव उसकी नीति का नतीजा है जिसका नुकसान भारत को उठाना पड़ेगा। उन्होंने कहा कि भारत का महत्व अमेरिका के लिए सिर्फ बाजार के लिए है बराबरी का नहीं है। अमेरिका अगर किसी से डरता है वह एकमात्र चीन है।
पार्थिव ने अपनी बात की शुरुआत एक अखबार में छपे उस कार्टून से की जिसमे प्रधानमंत्री को एक तख्ती लिए बहुत छोटे कद का दिखाया गया है। उनका कहना था कि उस कार्टून के माध्यम के यह समझा जा सकता है कि भारत की अमेरिका के सामने क्या औकात है। उनका कहना था कि ओबामा के रूप मे अमेरिका कोई लोटा लेकर भारत नहीं आया है बल्कि ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह आया है। हमें किसी भ्रम में नहीं रहना चाहिए बल्कि स्पष्ट होना चाहिए कि वह शासनतत्र पर कब्जा करने के लिए आया है। उनका यह भी कहना था कि ओबामा को अश्वेत डेमोक्रेट के रूप में नहीं देखना चाहिए सिर्फ अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में देखना चाहिए। उन्होंने कहा कि ओबामा को भोपाल का भी जिक्र करना चाहिए था जो उन्होंने नहीं किया।
लाल रत्नाकर का कहना था कि ओबामा को खास रिश्तेदार की तरह बुलाया गया है। अब बुलाया गया है तो कोई तो बात होगी। उनका कहना था कि रंगभेद की नीति अभी खत्म नहीं हुई है। अमेरिका में भी अश्वेत का मुद्दा है। इसके विपरीत भारत बहुरंगी देश है। उनका कहना था कि हमारी सरकार को अपने देश में रोजगार की कोई चिंता नहीं है। उनका कहना था कि अमेरिका को भारत में अभी भी दुश्मन के रूप मे देखा जाता है। अश्वेत होने से नीतियों में कोई परिवर्तन नहीं आ जाता, यह देखना महत्वपूर्ण है। ओबामा व्यापारी ही नहीं हैं वह विचार और ब्रांड अंबेस्डर भी हैं।
श्रवण ने कहा कि हमें सिर्फ यह मानना चाहिए कि ओबामा के रूप में सिर्फ अमेरिका का राष्ट्रपति आया है। किसी कंपनी के सीईओ की तरह आया है। ओबामा सिर्फ व्यापार करने नहीं आए हैं। यह देखने वाली बात है कि वह हमारे पड़ोसियों को भड़काता है। इसके बाद भी पराकाष्ठा देखिए कि वह मुंबई में आतंकवाद का जिक्र तक नहीं करता। हमें अब यह तय करना होगा कि अमेरिका के साथ किस तरह खड़ा होना है।
तड़ित कुमार ने बहुत साफ कहा कि ओबामा नहीं अमेरिका का राष्ट्रपति आया है। इसलिए इतना हायतौबा मची है। अभी कुछ समय पहले जापानी नेता आया था तब किसी को पता ही नहीं चला। अश्वेत राष्ट्रपति के मसले पर उनका कहना था कि अफ्रीका में नेल्सन मंडेला के राष्ट्रपति बनने का मतलब था। ओबामा की यात्रा के बाद अगर हमारे देश में गेहूं की कीमत में कोई अंतर आए तो मतलब है। हम जिस तरह उसके आगे बिछे जा रहे हैं वह हमारी गुलामी की मानसिकता का परिचायक है।
प्रकाश चौधरी ने कहा कि अमेरिका वैचारिक, राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक संकट से गुजर रहा है। उसकी चौधराहट पर चौतरफा हमले हो रहे हैं। इसीलिए उसका नया हथियार आतंकवाद और पर्यावरण बन गया है। उनका कहना था कि भारत और अमेरिका की वर्तमान स्थित महत्वपूर्ण है। अमेरिका अन्य देशों को अपनी प्रापर्टी मानता है। मानसिकता का भी टकराव है। भारत के संदर्भ में उनका कहना था कि पैसा आपके पास आ भी जाए तो बहुत अंतर नहीं पड़ता। उन्होंने कहा कि सबसे दुखद यह है कि भारतीय राष्ट्र का कोई क्लैरिफिकेशन नहीं है। इस यात्रा में भारत सरकार का कोई आधिकारिक पक्ष सामने नहीं आया है। उनका कहना था कि अंबानी हमारे प्रतिनिधि नहीं हैं। उन्होंने कहा कि समझौता बराबर की शक्तियों से होता है। अमेरिका अपनी ही शर्तों पर ही समझौते कर रहा है। गोष्ठी का संचालन रामशिरोमणि शुक्ल ने किया।

बुधवार, 3 नवंबर 2010

अब भी हिलती है पूँछ

बी बी सी हिंदी से साभार -

विनोद वर्मा विनोद वर्मा | मंगलवार, 02 नवम्बर 2010, 15:02 IST

डार्विन ने मानव विकास के बारे में कहा था कि पहले मानव की भी पूँछ होती थी लेकिन लंबे समय तक इस्तेमाल न होने की वजह से वह धीरे-धीरे ग़ायब हो गई.

वैज्ञानिक मानते हैं कि रीढ़ के आख़िर में पूँछ का अस्तित्व अब भी बचा हुआ है. वे ऐसा कहते हैं तो प्रमाण के साथ ही कहते होंगे क्योंकि विज्ञान बिना प्रमाण के कुछ नहीं मानता.

तो अगर पूँछ है तो वह गाहे-बगाहे हिलती भी होगी. अगर आप पूँछ को हिलता हुआ देखने की इच्छा रखते हों तो ऐसा अब संभव नहीं है. लेकिन कई बार ज़बान हिलती है तो इसके संकेत मिलते हैं कि पूँछ हिल रही है.

वैसे तो रोज़मर्रा की ज़िंदगी में इसके कई उदाहरण मिल जाएँगे. प्रोफ़ेसर के सामने कुछ छात्र ऐसी बातें कहते हैं जिससे दूसरे छात्रों का पता चल जाता है कि भीतर छिप गई पूँछ हिल रही होगी. बॉस से कुछ लोग जब 'ज़रुरी बात पर चर्चा' कर रहे होते हैं तो दफ़्तर के बाक़ी लोग महसूस करते हैं कि पूँछ हिल रही है. इश्क में पड़े लोग तो जाने अनजाने कितनी ही बार ऐसा करते हैं.

लेकिन व्यापक तौर पर इसका पता अक्सर राजनीतिक बयानों से चलता है.

कांग्रेसियों को इसमें विशेष महारत हासिल है. नीतीश कुमार ने कहा कि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनने से पहले मुख्यमंत्री बनकर शासन-प्रशासन को समझना चाहिए. तो कांग्रेस से जवाब आया, "जब अटल बिहारी वाजपेयी मुख्यमंत्री बने बिना प्रधानमंत्री बन सकते हैं तो राहुल गांधी क्यों नहीं?"

जो लोग अटल बिहारी वाजपेयी और उनकी राजनीति को जानते हैं वो समझ गए कि पूँछ हिल रही है.

इससे पहले बिहार में ही कांग्रेस के एक प्रवक्ता ने कहा था, "जेपी (जयप्रकाश नारायण) और राहुल गांधी में समानता है."

कांग्रेस का बड़ा तबका जानता और मानता है कि 70 के दशक में कांग्रेस का सबसे बड़ा दुश्मन कोई था तो वे जेपी ही थे. लेकिन बिहार में किसी से तुलना करनी हो तो जेपी से बड़ा व्यक्तित्व भी नहीं मिलता. इसलिए पूँछ हिली तो ज़बान से जेपी से तुलना ही निकली.

इससे पहले एक सज्जन 'इंदिरा इज़ इंडिया' कह चुके थे. कहते हैं कि वह 'मास्टर स्ट्रोक' था. पता नहीं क्यों वैज्ञानिकों ने जाँचा परखा नहीं लेकिन उस समय पूँछ हिलने का पुख़्ता प्रमाण मिल सकता था.

वैसे ऐसा नहीं है कि पूँछ हिलाने पर कांग्रेसियों का एकाधिकार है. भारतीय जनता पार्टी भी अक्सर इसके प्रमाण देती रहती है.

किसी नाज़ुक क्षण में एक भाजपाई सज्जन का दिल द्रवित हुआ तो उन्होंने कहा, "लालकृष्ण आडवाणी लौह पुरुष हैं, वल्लभ भाई पटेल की तरह."

समाजवादियों ने भी अपने एक दिवंगत नेता को 'छोटे लोहिया' कहना शुरु कर दिया था.

'जब तक सूरज चाँद रहेगा फलाँ जी का नाम रहेगा' वाला नारा जब लगता है तो सामूहिक रुप से पूँछ हिलती हैं.

आप कह सकते हैं कि सबकी अपनी-अपनी पूँछ है, जिसे जब मर्ज़ी हो, हिलाए. लेकिन संकट तब खड़ा होता है जब पूँछ को अनदेखा करके लोग नारों को सही मानने लगते हैं.

इतिहास गवाह है कि इंदिरा जी ने अपने को इंडिया मानने की ग़लती की तो वर्तमान में प्रमाण मौजूद हैं कि आडवाणी जी ख़ुद को लौह पुरुष ही मान बैठे. अब नज़र राहुल जी पर है वे भी अगर हिलती हुई पूँछें न देख सके तो पता नहीं जेपी हो जाएँगे या अटल. या कि वे इंतज़ार करेंगे कि कोई कहे, "राहुल ही राष्ट्र है."

वैसे तो ज्ञानी लोग कहते हैं कि विकास का क्रम कभी उल्टी दिशा में नहीं चलता इसलिए कोई ख़तरा नहीं है.

लेकिन उपयोग न होने से पूँछ ग़ायब हो सकती है तो अतिरिक्त उपयोग से अगर किसी दिन फिर बढ़नी शुरु हो गई तो?

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

बिहारी होने के नाते

बी बी सी हिंदी से साभार -

ब्रजेश उपाध्याय ब्रजेश उपाध्याय | सोमवार, 18 अक्तूबर 2010, 04:43 IST

बारह-तेरह साल पहले जानेमाने लेखक और पत्रकार अरविंद एन दास ने लिखा था, 'बिहार विल राइज़ फ़्रॉम इट्स ऐशेज़' यानी बिहार अपनी राख में से उठ खड़ा होगा.

एक बिहारी की नज़र से उसे पढ़ें तो वो एक भविष्यवाणी नहीं एक प्रार्थना थी.

लेकिन उनकी मृत्यु के चार सालों के बाद यानी 2004 में बिहार गया तो यही लगा मानो वहां किसी बदलाव की उम्मीद तक करने की इजाज़त दूर-दूर तक नहीं थी.

मैं 2004 के बिहार की तुलना सम्राट अशोक और शेरशाह सूरी के बिछाए राजमार्गों के लिए मशहूर बिहार से या कभी शिक्षा और संस्कृति की धरोहर के रूप में विख्यात बिहार से नहीं कर रहा था.

पटना से सहरसा की यात्रा के दौरान मैं तो ये नहीं समझ पा रहा था कि सड़क कहां हैं और खेत कहां.

सरकारी अस्पताल में गया तो ज़्यादातर बिस्तर खाली थे, इसलिए नहीं कि लोग स्वस्थ हैं बल्कि इसलिए कि जिसके पास ज़रा भी कुव्वत थी वो निजी डॉक्टरों के पास जा रहे थे.

इक्का-दुक्का ऑपरेशन टॉर्च या लालटेन की रोशनी में होते थे क्योंकि जेनरेटर के लिए जो डीज़ल सप्लाई पटना से चलती थी वो सहरसा पहुंचते-पहुंचते न जाने कितनों की जेब गर्म कर चुकी होती थी.

लगभग 60 प्रतिशत जली हुई एक 70-वर्षीय महिला को धूप में चारपाई पर लिटा रखा था और इंफ़ेक्शन से बचाने के लिए चारपाई पर लगी हुई थी एक फटी हुई मच्छरदानी!

ये वो बिहार था जहां लालू यादव 15 साल से सीधे या परोक्ष रूप से सत्ता पर काबिज़ थे.

लगभग छह सालों बाद यानि 2010 की अप्रैल में फिर से बिहार जाने का मौका मिला. काश मैं कह पाता कि नीतीश के बिहार में सब कुछ बदल चुका था और बिहार भी शाइनिंग इंडिया की चमक से दमक रहा था.

परेशानियां अभी भी थीं, लोगों की शिकायतें भी थीं लेकिन कुछ नया भी था.

अर्थव्यवस्था तरक्की के संकेत दे रही थी. हर दूसरा व्यक्ति कानून व्यवस्था को खरी खोटी सुनाता हुआ या अपहरण उद्दोग की बात करता नहीं सुनाई दिया.

दोपहर को स्कूल की छुट्टी के बाद साइकिल पर सवार होकर घर लौटती छात्राएं मानो भविष्य के लिए उम्मीद पैदा कर रही थीं.

डॉक्टर मरीज़ों को देखने घर से बाहर निकल रहे थे. उन्हें ये डर नहीं था कि निकलते ही कोई उन्हे अगवा न कर ले.

किसान खेती में पैसा लगाने से झिझक नहीं रहा था क्योंकि बेहतर सड़क और बेहतर क़ानून व्यवस्था अच्छे बाज़ारों तक उसकी पहुंच बढ़ा रही थी.

कम शब्दों में कहूं तो लगा मानो बिहार में उम्मीद को इजाज़त मिलती नज़र आ रही थी.

और एक बिहारी होने के नाते ( भले ही मैं बिहार से बाहर हूं) ये मेरे लिए बड़ी चीज़ है.

इस चुनाव में नीतीश कुमार समेत सभी राजनीतिक खिलाड़ियों के लिए बहुत कुछ दांव पर है बल्कि लालू-राबड़ी दंपत्ति का पूरा राजनीतिक भविष्य इस चुनाव से तय हो सकता है.

लेकिन बिहारियों के लिए दांव पर है उम्मीद. उम्मीद कि शायद अब बिहार का राजनीतिक व्याकरण उनकी जात नहीं विकास के मुद्दे तय करेंगे, उम्मीद कि बिहारी होने का मतलब सिर्फ़ भाड़े का मजदूर बनना नहीं रहेगा, उम्मीद कि भारत ही नहीं दुनिया के किसी कोने में बिहारी कहलाना मान की बात होगी.

और मुख्यमंत्री कोई बने मेरी उम्मीद बस यही है कि जिस उम्मीद की इजाज़त बिहारियों को पिछले पांच सालों में मिली है वो अब उनसे छिन न सके.