शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

REPORT OF AYODHYA BAITHAK by Ram Shiromani Shukla





अयोध्या पर चर्चा

रविवार २४ अक्टूबर को कृष्ण भवन वैशाली में हुई बैठक की बैठक में अयोध्या पर विस्तार से सारगर्भित और तथ्यपरक चर्चा की गई। शुरुआत शंभू भद्रा ने की। उन्होंने आस्था के सवाल को गैरजरूरी बताते हुए आस्था के आधार इस जिद के कोई मायने नहीं कि हम वहीं पूजा करेंगे जहां हमारा मन कहता है। इसी तरह नमाज के लिए यह जरूरी नहीं कि वह तय स्थान पर ही पढ़ी जाए। उन्होंने कहा कि पूजा और नमाज कहीं भी हो सकती है। उनका कहना था कि यह विवाद इतना बढ़ चुका है कि इसका कोई समाधान फिलहाल की परिस्थितियों के मद्देनजर निकल पाना असंभव लग रहा है। उनका यह सुझाव भी था कि उस स्थान को सरकार को राष्ट्रीय धरोहर घोषित कर देना चाहिए। ऐसा कर दिया जाए तो इस समस्या का समाधान हो सकता है।

चर्चा को आगे बढ़ाया श्रवण गुप्ता ने। उनका मानना था कि हमें सारी चीजें सरकार पर ही नहीं छोड़ देनी चाहिए। उनका यह भी कहना था कि कई समस्याएं इसलिए भी उलझ जाती हैं कि हम सरकार पर पूरी तरह आश्रित हो जाते हैं। जैसे ही कोई मसला राजनीतिज्ञों के जिम्मे जाता है, उस पर राजनीति शुरू हो जाती है। राजनीतिज्ञ उससे खेलने लगते हैं। अयोध्या के साथ भी हुआ। यह मुद्दा राजनीति का खिलौना बनकर रह गया है। कभी कांग्रेस इससे खेलती है तो कभी भाजपा और उसकी जैसी राजनीतिक ताकतें इसे सत्ता के लिए भुनाने लग जाती हैं। उनका मानना था कि अगर अयोध्या के लोग खुद आगे आएं तो इस समस्या का समाधान खोजा जा सकता है।
तड़ित कुमार ने राम के अस्तित्व पर ही सवाल उठाया। उनका कहना था कि जिसका मानवीय अस्तित्व ही नहीं है वह किसी मुकदमे में पक्षकार कैसे हो सकता है। रामलला विराजमान को एक पक्ष मानने के सवाल पर उनका कहना था कि जब भी कोई व्यक्ति वकील करता है तो वह हलफनामा देता है कि उक्त वकील अदालत में उसका पक्ष रखेगा। क्या रामलला ने यह दस्तखत किया? उन्होंने कहा कि ऐसे में तो किसी दिन कोई भूत या डाइन भी पक्षकार बन जाएगी। उन्होंने सेक्युलरिज्म शब्द के धर्मनिरपेक्ष अर्थ को अनर्थ बताया। उनका कहना था कि सेक्युलरिज्म के मायने धर्मनिरपेक्षता होता ही नहीं। उन्होंने सेक्युलरिज्म आंदोलन की विस्तार से चर्चा की और कहा कि यह वह आंदोलन था जिसने नई क्रांति की थी। यह चर्च के खिलाफ डंडा लेकर खड़ा होने वाला आंदोलन था। आज इस शब्द को गलत अर्थ में प्रयोग किया जा रहा है जो उचित नहीं है। उन्होंने वाल्मीकि के रामायण को महाकाव्य बताया और कहा कि उसमें भी राम को भगवान नहीं कहा गया है।
राम बली ने संक्षेप में अपनी बात रखी। उनका कहना था कि अयोध्या विवाद को सुलह से ही हल किया जा सकता है। हालांकि उन्होंने यह नहीं बताया कि सुलह का फार्मूला क्या हो सकता है। बाद में उन्होंने यह भी जोड़ा कि अगर सुलह से नहीं हल होता तो सरकार को इसका समाधान करना चाहिए।
जगदीश यादव ने शुरुआत ही यहां से की उनके बचपन की जो यादें ताजा हैं उनके अनुसार अयोध्या तब तक कोई धार्मिक रूप से कोई पापुलर स्थान नहीं था। लोग चित्रकूट तक को जानते थे और वहां जाते थे पर अयोध्या के बारे में न कोई बात करता था न कोई वहां जाता था। उन्होंने इसका भी जिक्र किया कि एक प्रेस छायाकार होने के नाते उन्होंने लगातार अयोध्या को कवर किया। उन्होंने विस्तार से उस दिन का भी जिक्र किया जिस दिन बाबरी मस्जिद ढहाई गई थी। यह भी बताया कि किस तरह उन जैसे छायाकारों को किस तरह उनके कैमरे छीनकर एक जगह जबरदस्ती रोके रखे गया और तब तक नहीं छोड़ा गया जब तक उसे ढहा नहीं दिया गया। उसके बाद में यह कहते हुए जाने दिया गया कि उसी रास्ते से निकलें जिससे बाबरी मस्जिद तोड़ने वालों ने बताया। उन्होंने बहुत स्पष्ट तौर पर बताया कि इस मुद्दे का राजनीतिकरण में कांग्रेस की सर्वाधिक भूमिका रही। ताला खोलवाने से लेकर जमीन एक्वायर करने तक सब कुछ कांग्रेस ने किया। भाजपा तो इसमें बाद में कूदी और वह भी सत्ता की खातिर। भाजपा के लिए अयोध्या का मतलब केवल सत्ता हासिल करने तक ही सीमित था। उनका कहना था कि इस समस्या का समाधान सुलह से नहीं हो सकता। उनका कहना था कि अयोध्या के लोगों के लिए भी मंदिर कभी कोई मुद्दा नहीं रहा है। अब जरूर वहां के लोग यह सोचने लगे हैं कि अगर मंदिर जाएगा तो उनका व्यवसाय बढ़ जाएगा।
लाल रत्नाकर ने बहुत सारी कहानियों के माध्यम से इस मुद्दे को समझने और समझाने की कोशिश की। उनका कहना था कि अयोध्या एक बड़ी साजिश का हिस्सा है। मंडलाइजेशन, कमंडलाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन की प्रक्रिया के माध्यम से उन्होंने अयोध्या विवाद को प्रस्तुत किया। उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी के माध्य से भाजपा के अयोध्या मुद्दे पर प्रलाप को यह कहते हुए आड़े हाथों लिया कि जिस व्यक्ति के आराध्य देव झूले लाल उसके आराध्य राम कैसे हो गए? उन्होंने कहा कि बाबर के बाद लिखे गए रामचरित मानस के लेखक तुलसी दास को सबसे बड़ा राम भक्त माना जाता है लेकिन तुलसी दास ने कहीं भी राम के अयोध्या में जन्म का उल्लेख नहीं किया है। ऐसे में कैसे मान लिया जाए कि राम का जन्म अयोध्या में ही और वहीं हुआ है। उन्होंने इस पर आश्चर्य व्यक्त किया कि आज अयोध्या ऐसी संपदा हो गई है जिस पर हर कोई अपने कब्जे में करना चाहता है। उन्होंने यह भी कहा कि आज रावण की स्वीकार्यता बढ़ रही है। उन्होंने व्यंग्य किया कि अगर यही हाल रहा तो निकट भविष्य में राम का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा।
सुदीप ने अयोध्या विवाद को सभ्यताओं के संघर्ष के रूप मे चिन्हित किया। उनका कहना था कि अयोध्या का मसला अदालत से नहीं सुलझने वाला है। अदालत का सम्मान करते हुए उनका मानना था कि अयोध्या पर जो फैसला आया वह दरअसल फैसला था ही नहीं। इसे फैसले के प्रस्तुतिकरण में मीडिया खासकर हिंदी मीडिया की भूमिका को संदिग्ध बताते हुए आलोचना की।
पार्थिव का भी यही मानना था कि अदालत से इस मामले का समाधान नहीं किया जा सकता। वार्ता से भी इसे नहीं सुलझाया जा सकता। उनका कहना था कि दरअसल कोई राजनीतिक पार्टी और सरकार नहीं चाहती कि इस समस्या का समाधान निकले। उनका मानना था कि अयोध्या में ही इसका समाधान हो सकता है। उनका तो यह भी कहना था कि हिंदू और मुसलिम दोनों ही पक्षकार अपने समुदाय के लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं करते।
प्रकाश चौधरी का कहना था कि अयोध्या की समस्या आम लोगों की समस्या नहीं है। यह विशुद्ध राजनीतिक मसला है। इसे बहुत सोचे-समझे तरीके से लटकाए रखा जा रहा है। हमारे देश की सरकारों को जब जरूरत पड़ी तब इसे उठाया और इसका लाभ उठाया। सरकार को न राम से मतलब है न आम जन से। उनका मानना था इस समस्या का समाधान कोर्ट से नहीं होगा। कोई जनतांत्रिक सरकार ही इसका समाधान खोज सकती है।
चर्चा में राम शिरोमणि शुक्ल और अनिल दुबे ने भी हिस्सा लिया।



शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

ये अंदाज़े गुफ़्तगू क्या है?

बी बी सी हिंदी से साभार -
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ये अंदाज़े गुफ़्तगू क्या है?

विनोद वर्मा विनोद वर्मा | शुक्रवार, 08 अक्तूबर 2010, 15:22 IST
न्यूज़ीलैंड के स्टार टीवी एंकर पॉल हैनरी ने जो कुछ किया उससे आप चकित हैं? मैं नहीं हूँ.
दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के ख़िलाफ़ जिस तरह के शब्दों का प्रयोग उन्होंने किया वह असभ्य, अभद्र और असंवेदनशील है.
इसे सुनने-देखने के बाद मैं भी अपमानित महसूस कर रहा हूँ. नाराज़ भी हूँ. लेकिन चकित मैं बिल्कुल भी नहीं हूँ.
चकित इसलिए नहीं हूँ क्योंकि यह व्यक्ति की ग़लती भर नहीं है. यह एक मानसिकता का सवाल है. जिसके दबाव में पॉल हैनरी शीला दीक्षित की खिल्ली उड़ाते हैं. इस मानसिकता से हज़ारों भारतीय हर दिन पश्चिमी देशों और अमरीका में रुबरू होते हैं.
यह मानसिकता पूंजीवादी और सामंतवादी मानसिकता है.
इस मानसिकता से ग्रसित व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति को अपने बराबरी पर नहीं देखना चाहता जो कभी उससे कमतर रहा हो. सामाजिक, आर्थिक या राजनीतिक, किसी भी स्तर पर. अगर कोई उसकी बराबरी पर या उससे ऊँचा खड़ा दिखे तो महसूस होने लगता है मानों जूती सर पर चढ़ गई हो.
जो भारतीय उनके ज़हन में अनपढ़, गँवार और ग़ुलाम के रुप में बसे हुए हैं वे आगे निकलते दिख रहे हैं. चाहे वह पेशेवरों के रुप में व्यक्ति हों या फिर अर्थव्यवस्था के रुप में देश.
यह बात आसानी से गले उतर भी नहीं सकती.
ठीक उसी तरह से जिस तरह से भारत में ही दलितों और पिछड़ों का सामाजिक उत्थान अभी भी बहुत से लोगों को अखरता है.
बाबू जगजीवनराम की राजनीतिक रास्ते में कितने कांटे बोए गए. मायावती का राजनीति में उदय उनके समकालीनों के गले में गड़ता रहा है.
बात सिर्फ़ दलित और पिछड़ों भर की नहीं है. यह मामला सामाजिक-आर्थिक उत्थान से भी जुड़ा है. पद और ओहदों से भी जुड़ा है. कहीं-कहीं यह भाषा के स्तर पर भी दिखता है.
ग़ालिब ने उस्ताद ज़ौक के गले में ऐसी ही किसी फाँस पर कहा होगा,
हरेक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
तुम्हीं कहो कि ये अंदाज़े गुफ़्तगू क्या है

इसे नस्लभेदी कह देने से मामला आसान दिखने लगता है. लेकिन यह उतना आसान नहीं है. यह उससे कोई महीन चीज़ है.
भारत ने न्यूज़ीलैंड के उच्चायुक्त रुपर्ट हॉलबोरो को तो तलब करके नाराज़गी जता दी.
लेकिन सीएनएन आईबीएन नाम के एक टेलीविज़न चैनल पर साइरस बरुचा ने जो कुछ किया और कहा उसे नज़रअंदाज़ कर दिया गया.
शीला दीक्षित के नाम को लेकर जिस तरह का मज़ाक उन्होंने उड़ाया वह कम अपमानजनक नहीं था.
मनोरंजन को लेकर हर देश काल में अलग-अलग प्रतिमान होते हैं. ये प्रतिमान सभ्यता और समाज के साथ भी बदलते हैं. लेकिन एक सीमा रेखा तो खींचनी ही होगी.
पॉल हैनरी के लिए भी और साइरस बरुचा के लिए भी.
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(प्रस्तुति- डॉ.लाल रत्नाकर )

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

बैठक में कश्मीर पर चर्चा

बैठक’ में इस रविवार को चर्चा की विषय था, कश्मीर. हालांकि यह समय अयोध्या पर चर्चा का था लेकिन विषय दो हफ़्ते पहले से तय था. कश्मीर किताबें और अनगिनत लेख लिख चुके वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश जी हमारे अनुरोध पर बैठक में इस विषय पर बोलने के लिए आए.

सुदीप ठाकुर ने बशारत पीर की कश्मीर पर आई किताब ‘कर्फ़्यूड नाइट’ से चर्चा की शुरुआत की. उन्होंने कहा कि एक किताब के बहाने कश्मीर के समकालीन इतिहास को जानने की दिशा में यह बहुत अच्छा प्रयास है. इसके बाद उर्मिलेश जी ने कश्मीर की समस्या को समझने के लिए इतिहास से लेकर वर्तमान तक विस्तार से चर्चा की.

उर्मिलेश जी ने कहा कि 1999 में कारगिल युद्ध के बाद से वर्ष 2008 तक का समय कश्मीर समस्या के हल के लिए बहुत अनुकूल था, जिसका फ़ायदा भारत सरकार ने नहीं
उठाया. उन्होंने पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति के चार सूत्रीय फ़ॉर्मूले और भारत के प्रधानमंत्री के साथ हस्ताक्षर किए गए 'हवाना घोषणापत्र' का ज़िक्र करते हुए कहा कि इन दोनों पर अमल करने की दिशा में कोई क़दम नहीं उठाए गए. उनका आकलन है कि यह ऐसा समय था जब पाकिस्तान की ओर से कश्मीर समस्या के हल की दिशा में काफ़ी प्रयास किए गए लेकिन न तो वाजपेयी सरकार ने कोई पहल की और न मनमोहन सिंह सरकार ही कोई ठोस क़दम उठा पाई.

उर्मिलेश का मानना है कि जम्मू कश्मीर में तीन ऐतिहासिक ग़लतियाँ हुईं. एक जम्मू कश्मीर के वज़ीरे आज़म शेख अब्दुल्ला की 9 अगस्त 1953 को हुई गिरफ़्तारी. दूसरा 1982 में अपनी मौत से पहले शेख अब्दुल्ला का अपने अगंभीर बेटे फ़ारुख़ अब्दुल्ला को अपनी राजनीतिक विरासत सौंपना और 1986 में मु्स्लिम यूनाइटेड फ्रंट को चुनाव में न जीतने देने के लिए चुनाव में की गई धांधली. उनका मानना है कि 1953 में जिस तरह से शेख अब्दुल्ला को गिरफ़्तार किया गया, उसने कश्मीरी लोगों का विश्वास डिगा दिया, उर्मिलेश मानते हैं कि शेख़ अब्दुल्ला यदि राजनीतिक परिपक्वता का परिचय देते हुए नेशनल कॉन्फ्रेंस की कमान मिर्ज़ा बेग के हाथों सौंपते तो इतिहास कुछ और होता.

वे मानते हैं कि यह कहना ग़लत होगा कि आज़ादी की मांग कश्मीरियों के मन में बाद में उभरी क्योंकि वह तो भारत की आज़ादी और पाकिस्तान के निर्माण के पहले से उनके मन में थी. अगर पाकिस्तान ने हमला न किया होता और पाकिस्तानी सेना ने कश्मीरियों के साथ ज़्यादती न की होती तो कश्मीर के लोग तो आज़ादी के ही पक्ष में थे. उर्मिलेश की राय में यह कहना सही नहीं है कि कश्मीर में मौजूदा समय में जो अस्थिरता है उसके पीछे पाकिस्तान का हाथ है क्योंकि जो कुछ हो रहा है वह कश्मीरियों की भावना ही है. उनका मत था कि सरकार जब तक अपने वोट बैंक की चिंता से निकलकर कोई कठिन निर्णय नहीं लेगी, तब तक कुछ नहीं हो सकता.

इसके अलावा उन्होंने कट्टरपंथियों और चरमपंथियों का कश्मीर में सूफ़ी विरासत का विरोध, रायशुमारी को पीछे की राजनीति , पाक अधिकृत कश्मीर की स्थिति आदि कई विषयों पर अपनी राय रखी.

चर्चा में हिस्सा लेते हुए अनिल दुबे ने कहा कि उन्हें लगता है कि जब तक केंद्र में एक ऐसी सरकार नहीं आती जिसका नज़रिया कश्मीर के प्रति जनतांत्रिक हो, तब तक कश्मीर की समस्या हल होती हुई नहीं दिखती. तड़ित कुमार ने कहा कि वे समझ नहीं पाते कि क्यों रायशुमारी की बात बार-बार उठती रहती है और फिर नेपथ्य में चली जाती है. पार्थिव का कहना था कि सरकार को राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ इस समस्या के हल की बात सोचनी चाहिए. उन्होंने सवाल उठाया कि अगर सशस्त्र सेना विशेषाधिकार क़ानून वापस लेना है तो सरकार को क्यों सिर्फ़ भाजपा के दबाव में इस निर्णय को टालती है और क्यों सेना के अधिकारी इसका विरोध करते हैं, जबकि यह निर्णय राजनीतिक है. उनका कहना था कि आज इस क़ानून को ख़त्म कर देना चाहिए क्योंकि ज़रुरत हुई तो इसे कभी भी फिर से लागू किया जा सकता है. जगदीश यादव ने अपने कश्मीर प्रवास के अनूभव याद करते हुए कहा कि कुछ समय पहले वहाँ लोग कहने लगे थे कि अब वे अमन शांति चाहते हैं लेकिन एकाएक हालात फिर बदल गए.

बैठक में अगली चर्चा, 24 अक्तूबर को अयोध्या पर होगी.