बुधवार, 29 दिसंबर 2010

देश और द्रोह का सवाल

बी बी सी हिंदी से साभार -विनोद वर्मा का ब्लॉग-

विनोद वर्मा विनोद वर्मा | मंगलवार, 28 दिसम्बर 2010, 16:25 IST

केंद्र में सत्तारूढ़ दल का नेतृत्व कर रही कांग्रेस और प्रमुख विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के अलावा लगभग सारा देश छत्तीसगढ़ की एक अदालत के इस फ़ैसले पर चकित है कि बिनायक सेन को देशद्रोह के आरोप में आजीवन कारावास की सज़ा भुगतनी होगी.
भाजपा के लिए इस फ़ैसले को सही ठहराने के लिए इतना पर्याप्त है कि यह सज़ा उनकी पार्टी की सरकार के जनसुरक्षा क़ानून के तहत सुनाई गई है.



कांग्रेस को शायद यह लगता होगा कि इस फ़ैसले की आलोचना से वह अपने गृहमंत्री पी चिदंबरम के ख़िलाफ़ खड़ी दिखेगी तो कथित तौर पर नक्सलियों या माओवादियों के ख़िलाफ़ आरपार की लड़ाई लड़ रहे हैं.
बिनायक सेन पर ख़ुद नक्सली या माओवादी होने का आरोप नहीं है. कथित तौर पर उनकी मदद करने का आरोप है.
इससे पहले दिल्ली की एक अदालत ने सुपरिचित लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता अरूंधति राय और कश्मीर के अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी के ख़िलाफ़ देशद्रोह का मुक़दमा दर्ज करवाया है.
यह कौन सा देश है जिसके ख़िलाफ़ द्रोह के लिए अदालतों को बिनायक सेन दोषी दिखाई दे रहे हैं और अरूंधति राय कटघरे में खड़ी की जा रही हैं.
क्या यह वही देश है जहाँ दूरसंचार मंत्री पर 1.76 लाख करोड़ के घोटाले का आरोप है और इस घोटाले पर प्रधानमंत्री की चुप्पी पर सर्वोच्च न्यायालय को सवाल उठाना पड़ा है? जहाँ एक छोटे से राज्य के मुख्यमंत्री पर चंद महीनों के कार्यकाल के दौरान चार हज़ार करोड़ के घपले का आरोप है जहाँ एक और छोटे राज्य की सरकार के ख़िलाफ़ अदालत ने फ़ैसला दिया है कि उन्होंने एक लाख रुपए की एक कंपनी को कई सौ करोड़ रुपए की कंपनी बनने में सहायता दी?
या जहाँ एक राज्य की मुख्य सचिव रहीं अधिकारी को ज़मीनों के घोटाले के लिए सज़ा सुनाई जा रही और कई आईएएस अधिकारियों के यहाँ छापे में करोड़ों की संपत्ति का पता चल रहा है?
क्या यह वही देश है जहाँ एक कॉर्पोरेट दलाल की फ़ोन पर हुई बातचीत बताती है कि वह कॉर्पोरेट कंपनियों की पसंद के व्यक्ति को एक ख़ास मंत्रालय में बिठाने का इंतज़ाम कर सकती है और इसके लिए नामधारी पत्रकारों से अपनी पसंद की बातें कहलवा और लिखवा सकती है.
या यह उसे देश के ख़िलाफ़ द्रोह है जहाँ नकली दवा का कारोबार धड़ल्ले से हो रहा है, जहाँ सिंथेटिक दूध और खोवा बनाया जा रहा है? या उस देश के ख़िलाफ़ जहाँ केद्रीय गृहसचिव को यह बयान देना पड़ रहा है कि देश में पुलिस का एक सिपाही भी बिना घूस दिन भर्ती नहीं होता?
खेलों के आयोजन के लिए निकाले गए जनता के टैक्स के पैसों में सैकड़ों करोड़ों रुपयों का घोटाला करके और आयोजन से पहले की अफ़रातफ़री से कम से कम 54 देशों के बीच देश की फ़ज़ीहत करवाने वाले क्या देश का हित कर रहे थे?
ऐसे अनगिनत सवाल हैं लेकिन मूलभूत सवाल यह है कि देश क्या है?
लोकतंत्र में देश लोक यानी यहाँ रह रहे लोगों से मिलकर बनता है या केंद्र और दिल्ली सहित 28 राज्यों में शासन कर रही सरकारों को देश मान लिया जाए?
क्या इन सरकारों की ग़लत नीतियों की सार्वजनिक चर्चा और उनके ख़िलाफ़ लोगों को जागरूक बनाना भी देश के ख़िलाफ़ द्रोह माना जाना चाहिए?
नक्सली या माओवादियों की हिंसा का समर्थन किसी भी सूरत में नहीं किया जा सकता. उसका समर्थन पीयूसीएल भी नहीं करता, बिनायक सेन जिसके उपाध्यक्ष हैं. उस हिंसा का समर्थन अरूंधति राय भी नहीं करतीं जिन्हें देश की सरकारें नक्सली समर्थक घोषित कर चुकी हैं. हिंसा का समर्थन अब कश्मीर के अलगाववादी नेता भी नहीं करते, जिनके साथ खड़े होने के लिए अरूंधति कटघरे में हैं.
देश की राजनीतिक नाकारापन से देश का एक बड़ा हिस्सा अभी भी बिजली, पानी, शिक्षा और चिकित्सा जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित है और ज़्यादातर उन्हीं इलाक़ों में नक्सली सक्रिय हैं. आज़ादी के छह दशकों के बाद भी अगर आबादी के एक बड़े हिस्से को मूलभूत सुविधाएँ नहीं मिल पाईं हैं तो इस दौरान वहाँ शासन कर रहे राजनीतिक दल क्या देश हित कर रहे थे?
अन्याय और शोषण के विरोध का समर्थन करने वाले लोगों की संख्या अच्छी ख़ासी है. वे प्रकारांतर से नक्सलियों के साथ खड़े हुए दिख सकते हैं. कश्मीर के लोगों की राय सुनने के हिमायती भी कम नहीं हैं और वे देश के विभाजन के समर्थन के रुप में देखे जा सकते हैं.
क्या ऐसे सब लोगों को अब देशद्रोही घोषित हो जाने के लिए तैयार होना चाहिए?

16. 06:50 IST, 29 दिसम्बर 2010 Dr.Lal Ratnakar:
'देशद्रोह' बहुत अटपटा सा मामला है. उस देश के लिए द्रोह जहां लोग देश को लूट रहे हैं या जो इस देश में लुट रहा है? बिनायक सेन को अपराधी बना देना माननीय जज साहब के लिए इसलिए महंगा पड़ रहा है क्योंकि बिनायक सेन जी की एक लॉबी है जिनके जरिये देश ही नहीं विदेशों में भी चर्चा हो रही है. लेकिन इस देश में कई जज साहब न जाने कितने 'अपराधियों' को खुलकर अपराध कराने में मदद करते हैं. जबकि न जाने कितने 'निरीह' को सज़ा देते हैं. जिन्हें इसी देश का आम आदमी माननीय जज साहब को भगवान और अल्लाह मानकर सिर-माथे लगा लेता है. ऐसे असंख्य मामलों का हवाला उपलब्ध है जिस पर समय-समय पर माननीय जज साहब भी टिप्पणी करते रहते हैं.
संभवतः यह सब देशद्रोह की श्रेणी में नहीं आता होगा क्योंकि उन्हें 'न्याय' करने का हक़ दिया गया है. श्री बिनायक सेन को वह सब कुछ करने का हक़ किसने दिया. चले थे जनांदोलन करने. जिस देश का 'न्यायदाता' न्याय न करता हो और मामले को लटका के रखता हो और वहीं इस मामले में जो भी न्याय किया गया है वह भले ही दुनिया को 'अन्याय' लग रहा हो पर कर तो दिया. वाह, आप ने भी कैसा सवाल उठा दिया. लगता है कि अभी आप पत्रकारिता के सरकारी लुत्फ़ के 'मुरीद' नहीं हुए हैं. अभी हाल ही में कई पत्रकारों के नाम ज़ाहिर हुए हैं. लेकिन इतना हाय तौबा क्यों मचा रखी है? ऊपर वाले माननीय जज साहब ज़मानत तो दे ही देंगे यदि ऐसा लगता है की भारी अपराध है ज़मानत नहीं मिलेगी तो उससे भी ऊपर वाले माननीय जज साहब जो नीचे वालों की सारी हरकतें जानते हैं वह ज़मानत दे देंगे. विनोद जी आपकी चिंता वाजिब है इस देश के लिए अगला ब्लॉग संभल कर लिखियेगा 'यह देश है वीर जवानों का, बलवानों का, धनवानों का. जयहिंद.


शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

पार्थिव के ब्लॉग से -


मोहम्मद रफी के जन्मदिन 24 दिसंबर पर

रफी के गांव में 


              पार्थिव कुमार

आम का वह दरख्त अब नहीं रहा जिसके जिस्म पर रफी गांव छोड़ते वक्त अपना नाम खुरच गए थे। नुक्कड़ के उस कच्चे कुएं का नामोनिशान भी मिट चुका है जिसकी मुंडेर पर बैठ कर वह शरारतों की साजिशें रचा करते थे। पिछले तकरीबन 75 बरसों में कोटला सुलतान सिंह में सब कुछ बदल गया है। लेकिन इस छोटे से गांव ने अपने नटखट फिक्को की यादों को बदलाव की तमाम हवाओं से बचा कर ओक में सहेजे रखा है।

पंजाब के अमृतसर जिले में मजीठा से पांच किलोमीटर दूर है कोटला सुलतान सिंह। मशहूर गायक मोहम्मद रफी का जन्म इसी गांव में 24 दिसंबर 1924 को हुआ था। तेरह साल की उम्र में लाहौर में जा बसने से पहले उन्होंने बचपन की अपनी पढ़ाई भी यहीं पूरी की। उस जमाने में अपने तंग कूचों और मिट्टी के चंद घरों के साथ कोटला सुलतान सिंह बाकी दुनिया से कोसों दूर खड़ा हुआ करता था। मगर आज लगभग 200 पक्के मकानों वाले इस गांव में एक हाई स्कूल भी है। तारकोल से ढंकी चौड़ी गलियां हैं और हरेभरे खेतों में बिजली के पंप से पानी की शक्ल में खुशहाली बरसती है।

रफी के बचपन के दोस्त कुंदन सिंह बताते हैं, ‘‘उसे हम फिक्को के नाम से बुलाते थे। फिक्को, सिस्सो यानी बख्शीश सिंह और मैं लुड्डन - हम तीनों जिगरी यार थे। इकट्ठे पढ़ना, एक साथ खेलना और मिल कर मस्ती करना। हमारी शरारतों से समूचा गांव परेशान रहता था। मगर पढ़ने लिखने में भी हमने अपने मास्टर नजीर अहमद को शिकायत का कोई मौका नहीं दिया।’’

85 साल के कुंदन सिंह को देखने, बोलने और सुनने में दिक्कत होती है। चंद कदम चलना भी वाकर के सहारे ही हो पाता है। लेकिन रफी के नाम का जिक्र आते ही उनकी आंखों की पुतलियां चमक उठती हैं। अपनी यादों की पोटली खोलते हुए वह कहते हैं, ‘‘हम तीनों पेड़ से अंबियां तोड़ते और कुएं की मुंडेर पर बैठ कर गप्पें हांकते थे। फिक्को हम तीनों में सबसे शरारती था। ज्यादातर शरारतें उसके ही दिमाग की उपज होती थीं और हम उन्हें अमली जामा पहनाते।’’

रफी को गायकी की तालीम कोटला सुलतान सिंह से जुदा होने के बाद ही मिली। मगर गाने का शौक उन्हें बचपन से ही था। वह अपनी गायों को चराने के लिए उन्हें गांव के बाहर ले जाते और वहां खूब ऊंची आवाज में अपना शौक पूरा करते।

कुंदन सिंह मानते हैं कि गायकी में रफी की कामयाबी एक फकीर की दुआ का नतीजा है। उन्होंने बताया, ‘‘एक दफा गांव में फकीरों की एक टोली आई। वे दरवेश घूम घूम कर गाते चलते थे। फिक्को को उनका गाना अच्छा लगा और उसने उनकी नकल शुरू कर दी। फकीरों में से एक को उसकी आवाज भा गई। उसने फिक्को के सिर पर हाथ रखा और कहा - अल्लाह करे कि तेरी शहद सी मीठी यह आवाज समूची दुनिया में गूंजे।’’

रफी के वालिद हाजी अली मोहम्मद के पास खेती की कोई जमीन नहीं थी। तंगी की वजह से हाजी साहब 1936 में रोजगार की तलाश में लाहौर चले गए। वहां हजामत बनाने का उनका धंधा चल निकला और अगले साल वह अपने समूचे परिवार के साथ लाहौर में ही जा बसे।

कुंदन सिंह बताते हैं, ‘‘हमसे जुदा होते समय फिक्को गमगीन था। हम तीनों दोस्त आम के पेड़ के नीचे मिले। फिक्को ने एक नुकीला पत्थर उठाया और उससे कुरेद कर दरख्त पर अपना नाम और गांव छोड़ने की तारीख लिख दी। उसने कहा - यह अपनी निशानी छोड़ जा रहा हूं मैं। कभी याद आए मेरी तो इसे देख लेना। उस रोज हम तीनों दोस्त एकदूसरे को सीने से भींच कर खूब रोए।’’

रफी कुछ साल तक कोटला सुलतान सिंह के अपने दोस्तों को खत भेजते रहे मगर बाद में यह सिलसिला बंद हो गया। वह संगीत की दुनिया में खो चुके थे और आल इंडिया रेडियो के लाहौर स्टेशन से उनकी आवाज गूंजने लगी थी। उन्होंने लाहौर में रहते ही फिल्मों में गाना शुरू कर दिया था और 1944 में वह बंबई चले गए।

1945 में अपनी ममेरी बहन बशीरा से निकाह करने के बाद रफी कोटला सुलतान सिंह आए। तब तक गायक के तौर पर उनकी शोहरत फैलने लगी थी। कुंदन सिंह बताते हैं, ‘‘मैं और सिस्सो कुछ सकपकाए से थे। अपना यार बड़ा आदमी बन गया है - पता नहीं किस तरह मिले। लेकिन गले लगते ही पल भर में सारी बर्फ पिघल गई और फिर हमने मिल कर वो हुड़दंग मचाई कि कुछ पूछो मत।’’

इसके बाद रफी कभी अपने गांव नहीं आ सके। बंबई में ही अपनी गायकी में मशगूल एक के बाद एक कामयाबी की मंजिलें तय करते गए। गांव की अगली पीढ़ी उनसे मिल तो नहीं पाई मगर उनके गाने गुनगुनाते हुए ही जवान हुई। रफी ने भी कोटला सुलतान सिंह को दिल से जुदा नहीं होने दिया। पंजाब के लेखक हरदीप गिल अपनी किताब के विमोचन के सिलसिले में एक बार रफी से मिलने बंबई गए। जैसे ही उन्होंने बताया कि वह अमृतसर से आए हैं, रफी की बांछें खिल गईं। वह बाकी बातों को दरकिनार कर गिल से अपने गांव और दोस्तों की खोजखबर लेने लगे।

31 जुलाई 1980 को याद कर कुंदन सिंह की आंखें भर आती हैं। कोटला सुलतान सिंह को दुनिया के नक्शे पर एक अलग पहचान दिलाने वाले रफी इस दिन सबको छोड़ गए। उनके इंतकाल की खबर मिलते ही समूचे गांव में सन्नाटा छा गया और गलियों में हफ्तों उदासी गश्त करती रही।

दो साल पहले सिस्सो के भी गुजर जाने के बाद कुंदन सिंह अकेले रह गए हैं। शाम के धुंधलके में अपने कमरे की खिड़की से बाहर झांक कर दोस्तों को याद करते हैं। सूरज का संतरी गोला लहलहाते खेतों के पीछे जमीन पर उतरने को है। अभी कुछ ही देर में कोटला सुलतान सिंह रात की काली चादर लपेटे और घुटनों के बीच अपने सिर को छिपाए ऊंघ रहा होगा। सर्द हवा में कुछ सरसराहट सी है जैसे दूर कहीं पेड़ों के पीछे बैठे रफी गा रहे हों -

तुम मुझे यूं भुला न पाओगे ...

जब कभी भी सुनोगे गीत मेरे

संग संग तुम भी गुनगुनाओगे ...

(हिन्दी मासिक आउटलुक के दिसंबर 2010 अंक में प्रकाशित)

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

बैठक की रिपोर्ट

5दिसंबर2010 को वैशाली के कृष्ण भवन, में बैठक की अगली कड़ी में राम शिरोमणि शुक्ल और श्रवण कुमार गुप्ता ने अपनी कविताओं का पाठ किया. दो-ढाई दशकों से पत्रकारिता कर रहे राम शिरोमणि लंबे समय से कविताएं लिखते रहे हैं. हालांकि एक लंबा अंतराल भी रहा है. इधर कुछ महीनों से उन्होंने यह सिलसिला फिर शुरू किया है. उन्होंने अपनी एक दर्जन छोटी-बड़ी कविताएं सुनाईं. इनमें कुछ राजनैतिक कविताएं भी थीं. मां, गौरया और बोलने का जोखिम जैसी छोटी कविताओं को साथियों ने खूब पसंद किया। तडि़त दादा ने उनकी कविताओं पर टिप्पणी करते हुए कहा कि उन्हें निरंतर लिखना चाहिए. उनके पास विषय की कमी नहीं है. विनोद वर्मा और अनिल दुबे का कहना था कि उनकी राजनैतिक कविताओं में पैनापन तो है, लेकिन उनमें उन्हें और का करना चाहिए. पार्थिव ने कहा कि गौरया कविता छोटी जरूर है, लेकिन यह ताजगी से भर देती है.

श्रवण कुमार गुप्त ने तीन कविताएं सुनाईं। इनमें से एक दंगे के बाद एक कस्बे के ताने-बाने में आए बदलाव को उन्होंने उकेरा है तो दूसरी कविता दलितों के साथ हुई ज्यादती और समाज में पैदा हो रही जागरूकता पर केंद्रित थी। यह कविता राजनैतिक वक्तव्य नहीं, बल्कि यथार्थ के धरातल पर मजबूती से खड़ी नजर आती है। उनकी इस कविता को तडि़त दा, विनोद वर्मा, अनिल दुबे, राम शिरोमणि, सुदीप ठाकुर सहित सभी साथियों ने सबसे अधिक पसंद भी किया. उनकी कविता उन तमाम लोगों की भावनाओं को व्यक्त करती है, जिन्हें काम के सिलसिले में अपने शहर से बाहर जाना पड़ता है और जब वे कभी लौटते हैं तब वह शहर बदल चुका होता है.

बैठक की अगली कड़ी 26 दिसंबर को होगी क्योंकि 19 दिसंबर को कुछ साथी शहर में नहीं होंगे.