बुधवार, 13 जुलाई 2011

पिछली बैठक की रिपोर्ट

रविवार, 10 जुलाई, 2011 को बैठक में चर्चा का विषय था, क्या मौजूदा भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों से देश में बुनियादी बदलाव का रास्ता खुलेगा?
इस विषय पर चर्चा के लिए सबलोग और संवेद पत्रिकाओं के संपादक किशन कालजयी और यूनीवार्ता के विधि संवादददाता सुरेश तिवारी अतिथि वक्ता के रूप में आमंत्रित किए गए थे.
अनिल दुबे ने चर्चा की प्रस्तावना में कहा कि भ्रष्टाचार कोई नया मुद्दा नहीं है, लेकिन अब ऐसा लगता है कि इसका परिमाण बड़ा हो गया है. कुछ लाख तक के भ्रष्टाचार की बात अब लाखों करोड़ों तक जा पहुँची है. वर्तमान भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि  अन्ना हज़ारे की पृष्ठभूमि की वजह से मध्यवर्ग उस आंदोलन से जुड़ गया, लेकिन इससे एक बात साफ़ हुई कि लोगों की वर्तमान पॉलिटिकल सिस्टम में दिलचस्पी नहीं है. उनका कहना था कि भ्रष्टाचार से निपटने के लिए बुनियादी ढाँचे को ठीक किया जाना चाहिए. भ्रष्टाचार आंदोलनों के संदर्भ में उन्होंने जानना चाहा कि क्या इस तरह के आंदोलन किसी बड़े सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तन का कारक हो सकते हैं?
किशन कालजयी ने अनिल दुबे की इसी बात को सूत्र की तरह लिया कि भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं है. उन्होंने कहा कि अभिज्ञान शांकुतलम में इसका ज़िक्र है कि जब मछुआरे ने दुष्यंत की अंगूठी वापस की, तो राजा दुष्यंत ने मछुआरे को अंगूठी के मूल्य के बराबर का धन दिया. मछुआरे ने इसमें से आधी रकम नगर रक्षक को दे दी थी, जो राजा का साला था. इसके बाद किशन कालजयी ने 1930 के आसपास लिखी गई नमक का दरोगा कहानी का ज़िक्र किया. उन्होंने याद किया कि यह वही समय था, जब गांधीजी ने वॉयसराय को चिट्ठी लिखकर कहा था कि ब्रिटेन के प्रधानमंत्री की तनख़्वाह आम ब्रिटिश नागरिक की तनख़्वाह से 90 गुना है, लेकिन वॉयसराय आम भारतीय की औसत आय दो आने से हज़ारों गुना ज़्यादा (21 हज़ार रुपए) की तनख़्वाह क्यों लेते हैं. बाद में यही सवाल राममनोहर लोहिया ने भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर होने वाले खर्च को लेकर भी पूछा था.
उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार आंदोलन के हाल के इतिहास को देखें, तो दो बड़ी घटनाएँ याद आती हैं. एक तो जयप्रकाश का आंदोलन और दूसरी वीपी सिंह का आंदोलन. उनका कहना था कि जयप्रकाश के आंदोलन ने जनता पार्टी सरकार के गठन की नींव रखी, लेकिन वह भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लड़ने की बजाय आपसी कलह में ही उलझी रही. इसी तरह वीपी सिंह ने सरकार बनाने के बाद बोफ़ोर्स घोटाले का कुछ नहीं किया. उनका कहना है कि इन दोनों उदाहरणों से साफ़ है कि इस तरह के आंदोलनों से आप सत्ता को हिला तो सकते हैं, लेकिन परिवर्तन नहीं ला सकते.
उन्होंने कहा कि बाबा रामदेव की पकड़ लोगों पर ज़्यादा थी, लेकिन उन्होंने हल्केपन की बात की और मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया. वहीं अन्ना के आंदोलन में ज़्यादा एकजुटता दिखी. मीडिया ने भी इसे बढ़चढ़ कर दिखाया. उन्होंने सवाल उठाया लेकिन यही मीडिया पूर्वोत्तर राज्य की इरोम शर्मिला के मामले को उस तरह से क्यों नहीं दिखाता? उन्होंने कहा, "मेरी जानकारी के अनुसार अन्ना हज़ारे के आंदोलन को बिना कमर्शियल ब्रेक लिए लगातार दिखाने पर एक न्यूज़ चैनल को दो सौ करोड़ रुपयों का नुक़सान हुआ और इसकी भरपाई एक बड़े कॉर्पोरेट हाउस ने की."
किशन कालजयी ने कहा कि भ्रष्ट वही होता है, जिसके पास सत्ता है, ताक़त है. उनका कहना था कि शायद इसीलिए सरकारी महकमों में जितना भ्रष्टाचार है, उतना भ्रष्टाचार निजी क्षेत्र में नहीं है. उनका कहना था कि राजनीतिक भ्रष्टाचार का एक बड़ा स्रोत चुनाव है. यहाँ तक कि गाँव के मुखिया के चुनाव में भी वोट दो-दो तीन-तीन सौ रुपए में बिकते हैं. उनका कहना था कि भ्रष्टाचार के स्रोत को पकड़ने की ज़रूरत है.
उनका कहना था कि भ्रष्टाचार को भ्रष्टाचार कहने का साहस लोगों में जगाना होगा. और यह जागरूकता पैदा करने की ज़िम्मेदारी बु्द्धिजीवी वर्ग की है. आंदोलनों की सफलता के बारे में उन्होंने कहा कि भारत में लोगों के पास विचारों की कमी नहीं है लेकिन चरित्र की कमी है. उनका कहना था कि विचार के लिए तो महावीर, बुद्ध से लेकर गांधी तक हैं लेकिन चरित्र नहीं है. अन्ना का आंदोलन इसलिए सफल हुआ क्योंकि उनका एक चरित्र है. उनकी राय थी कि संकट चरित्र का है इसलिए हमें विचारों को जीना होगा और चरित्र गढ़ने होंगे.
चर्चा को आगे बढ़ाते हुए लाल रत्नाकर ने कहा कि कालजयी जी ने तमाम तरह के भ्रष्टाचार की बातें कहीं लेकिन उन्होंने सामाजिक भ्रष्टाचार को अनदेखा कर दिया, जबकि सामाजिक भ्रष्टाचार अपने आपमें बड़ी समस्या है.
विद्याभूषण अरोड़ा का कहना था कि ये अपने आपमें बड़ा सवाल है कि सरकारी लोगों और बिज़नेसमैन में कौन बड़ा भ्रष्टाचारी है. उन्होंने कहा कि कालजयी जी ने चुनाव में भ्रष्चाचार को ख़त्म करने की बात कही, लेकिन इसमें एक ख़तरा ये है कि इससे कहीं चुनाव की प्रक्रिया ही न बदल जाए, क्योंकि ये चुनाव प्रक्रिया ही है जो मायावती जैसे लोगों को सत्ता तक पहुँचा सकती है.
कृष्णा ने भ्रष्टाचार और कालेधन के बहुत से आंकड़े पेश किए. उन्होंने कहा कि विदेशों में जमा कालेधन की बात तो की जा रही है, लेकिन देश के भीतर चल रहे कालेधन की कोई बात नहीं कर रहा है, जबकि ये धन भी बहुत बड़ा है. उनका कहना था कि अन्ना के आंदोलन को जिस मध्यवर्ग का बड़ा समर्थन मिला वह वर्ग चाहता है कि भ्रष्टाचार तो दूर हो, लेकिन विकास भी चलता रहे. इस वर्ग का कहना है कि व्यवस्था में थोड़ा बदलाव होना चाहिए.
पार्थिव कुमार ने कहा कि मध्यवर्ग दरअसल सरकार का चेहरा है. इसलिए सरकार उनसे नरमी बरतती है और अन्ना के आंदोलन से बातचीत करती है, इससे सरकार की छवि सुधरती है. उनका कहना था कि ये सच है कि समाज में एकजुटता नहीं है, इसलिए सिविल सोसायटी के आंदोलनों के प्रति सरकार की प्रतिक्रिया दिल्ली में अलग और छत्तीसगढ़-झारखंड-उड़ीसा में अलग होती है. उन्होंने कहा कि सरकार अगर कहती है कि अन्ना की टीम पूरे समाज के प्रतिनिधि नहीं हैं, तो ऐसे में तो संसद भी हमारे समाज की पूरी प्रतिनिधि नहीं है. उन्होंने लोकपाल विधेयक पर सभी राजनीतिक दलों की एकजुटता पर सवाल उठाते हुए कहा कि सशक्त क़ानून तो छो़ड़ दीजिए, संसद में बैठे लोग तो यही नहीं चाहते कि क़ानून बने. उनका कहना था कि सुराख अगर कर दिया गया है तो ये तय है कि आने वाले दिनों में वह बड़ा होगा.
तड़ित कुमार ने कहा कि भ्रष्टाचार का अर्थ सिर्फ़ रिश्वतखोरी नहीं है, ऑफ़िस में जाकर काम न करना और कम काम करना भी भ्रष्टाचार है. उनका कहना था कि भ्रष्टाचार को ख़त्म करने के लिए दृढ़ इच्छा शक्ति वाले नेतृ्त्व की ज़रूरत है. उन्होंने इसका उदाहरण देते हुए कहा कि मुसोलिनी भले ही तानाशाह रहा हो, उसने इटली से माफ़िया का सफ़ाया कर दिया था, या इंदिरा गांधी जैसी नेता जिन्होंने इमरजेंसी लगाई. इमरजेंसी में बहुत कुछ हुआ जो बुरा था, लेकिन ट्रेनें समय से चलने लगीं थीं और लोग समय पर ऑफ़िस पहुँचने लगे थे. उनका कहना था कि ये उम्मीद करना कि कोई मूलभूत परिवर्तन होने जा रहा है,  भूल होगी.
प्रकाश का कहना था कि लोकतंत्र में सत्तारूढ़ पार्टी को अपनी छवि की चिंता होती है और इस छवि को लेकर जब सवाल उठाए जाते हैं तो सरकार मुद्दों पर विचार करना स्वीकार कर लेती है. इस समय यही हो रहा है. उन्होंने कहा  कि अभी सरकार को बहुत से काम करने हैं, जिसके लिए उसे बेहतर छवि की ज़रुरत है. प्रकाश का कहना है कि फिर भी यदि भ्रष्टाचार का सवाल उठा है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए.
रामशिरोमणि शुक्ला ने कहा कि जो कुछ भी अच्छा हो रहा है उसकी हवा निकालने की कोशिश की जा रही है. उनका कहना था कि देश में चुनाव आयोग ने अच्छा काम किया और इसी तरह से सूचना के अधिकार पर अच्छा काम हुआ है. लेकिन इरोम शर्मिला जैसी एक लड़की बरसों बरस से आंदोलन करती है और उसका सरकार नोटिस तक नहीं लेती. उन्होंने कहा कि निगमानंद की हरिद्वार में और नागनाथ की वाराणसी में हुई हालात पर भी बहुत हलचल नहीं होती. उनका कहना था कि जैसा भी हो इन आंदोलनों के तत्वों का स्वागत किया जाना चाहिए.
सुरेश तिवारी ने कहा कि पिछले दिनों न्यायपालिका में एक्टिविज़्म बढ़ा है, लेकिन न्यायपालिका भी भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं है. उन्होंने जजों की नियुक्ति का उदाहरण देते हुए कहा कि कॉलेजियम से संबंध होने न होने, किसी राजनेता से ताल्लुकात होने न होने का भी नियुक्ति पर फ़र्क पड़ता है. उनका कहना था कि जो जनहित याचिकाएँ समाज को प्रभावित करने वाली हैं, उनका स्वागत किया जाना चाहिए.
विनोद वर्मा ने कहा कि सिर्फ़ आर्थिक भ्रष्टाचार को दूर करने से काम नहीं चलने वाला है, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और नैतिक भ्रष्टाचार को भी साथ में ख़त्म करना होगा तब कहीं भ्रष्टाचार पूरी तरह से ख़त्म होगा. उनका कहना था कि अन्ना हज़ारे और बाबा रामदेव के आंदोलन में जो मध्यवर्ग भाग ले रहा था उनमें से ज़्यादातर अपने दैनिक कार्यों से निपटने के बाद मानो अपना पाप धोने के लिए इन आंदोलनों का हिस्सा हो रहे थे. इन आंदोलनों में वह वर्ग हिस्सा ही नहीं था, जो देश की आबादी का 70 प्रतिशत है और जिसकी आय 20 रुपए रोज़ से अधिक नहीं है. जब तक ये वर्ग आंदोलन का हिस्सा नहीं बनेगा, ये सवाल ही अप्रासंगिक है कि क्या इससे कोई परिवर्तन होने जा रहा है.
अंत में बैठक की ओर से अतिथिद्वय किशन कालजयी और सुरेश तिवारी का आभार प्रकट किया गया और भविष्य में बैठक का हिस्सा बने रहने का अनुरोध किया गया.

मंगलवार, 3 मई 2011

लाल रत्नाकार की पेंटिंग पर बैठक

०१ मई २०११ स्थान आर-२४,राजकुंज, राजनगर, गाजियाबाद |


इस बार की बैठक डा. लाल रत्नाकार की पेंटिंग और उनकी कला यात्रा पर
केंद्रित थी। पिछले महीने ही मंडी हाउस में उनकी कृतियों की प्रदर्शनी
लगाई गई थी और तभी से बैठक के साथी उस पर बहस करना चाहते थे। पहली मई को
हुई इस बैठक की शुरुआत लाल रत्नाकार ने ही की और बताया कि किस तरह वे
अपने गांव की दीवारों को कोयले और गेरू से रंगते हुए कला की ओर मुड़े।
दरअसल वहीं उनकी रचना प्रक्रिया के बीज पड़ गए थे। यह भी दिलचस्प है कि
वे स्कूल में विज्ञान के छात्र थे और तभी जीव विज्ञान के चित्र बनाते हुए
उनके लिए खुद को अभिव्यक्त करने का ऐसा फलक मिल गया, जो उन्हें देश की
कला दीर्घाओं तक ले आया। इसके बाद चर्चा की शुरुआत करते हुए जगदीश यादव
ने कहा कि रत्नाकार के अधिकांश चित्र में स्त्रियां खामोश नजर आती हैं।
उन्होंने सवाल किया कि आखिर सबको चुप क्यों किया गया है। उन्हें कुछेक
पेंटिग्स की कंपोजिशन को लेकर भी आपत्ति थी। बैठक के वरिष्ठ साथी तड़ित
दादा ने कहा, मैं अपने आसपास जो कुछ घटता देख रहा हूं, मेरे लिए पेंटिग
भी उसी का हिस्सा है। रत्नाकार के चित्र बहुत खामोश लगे, कुछ जगह रंग
अटपटा भी लगा। कहीं-कहीं चित्रकार की जिद भी दिखती है। सुदीप ठाकुर ने
कहा कि रत्नाकार की पेंटिंग में एक तरह का सिलसिला दिखता है और लगता है
कि हर अगली पेंटिंग पिछली की कड़ी है। जिस तरह से कहा जाता है कि कोई भी
कवि जिंदगी भर एक ही कविता लिखता है शायद चित्रों के बारे में भी ऐसा ही
है।


प्रकाश ने रत्नाकार की पेंटिंग के बहाने कला के तार्किक आयाम की चर्चा
की। प्रकाश के मुताबिक रत्नाकार जी की लाइनें मजबूत हैं। चित्रों में
महिलाएं पुरुषों से सख्त नजर आती हैं, यदि मुख्य आकृति के साथ पूरा
परिवेश होता तो शायद ये चित्र कहीं ज्यादा प्रभावी होते। पार्थिव कुमार
ने जानना चाहा कि चित्र बनाना या पेंटिंग बनाना कहानी लिखने से कितना अलग
है? दोनों रचनाकर्म में क्या फर्क है। राम शिरोमणि ने कहा कि रत्नाकार के
चित्र खूबसूरत लगते हैं, लेकिन पात्र मूक लगते हैं। उनके मुताबिक जीवन
सीधा-सपाट नहीं है। यदि चित्रों में हरकत नहीं होगी तो वे निर्जीव
लगेंगे। उन्होंने कहा कि रचना से पता चलता है कि वस्तुस्थिति कैसी थी।
रचनाकार उसमें जोड़ता-घटाता है। प्रो. नवीन चाँद  लोहनी ने  कहा कि अंत तय कर कहानी
नहीं लिखी जा सकती। यही बात  कला के साथ है। व्यावसायिक दृष्टिकोण अलग हो
सकते हैं। उन्होंने कहा कि रत्नाकार के चित्रों के चेहरे कई बार मेरे
जैसे लगते हैं, गांव के चेहरे लगते हैं। उन्होंने इन चित्रों के मूक होने
के तर्क को खारिज करते हुए कहा कि कई बार मूक वाचन का भी अर्थ होता है।
विनोद वर्मा ने दिलचस्प लेकिन महत्वपूर्ण बात कही कि रचना और रचनाकार
दोनों को जानने से कई बार निष्पक्षता और निरपेक्षता खत्म हो जाती है।
इसमें खतरा है और उन्हें यह खतरा रत्नाकार और उनके चित्रों के साथ भी
महसूस हुआ। उनके चित्रों पर लिखी अपनी दो कविताएं- सुंदर गांव की औरतें
और कहां हैं वे औरतें, भी पढ़ी। उन्होंने कहा कि रत्नाकार के चित्रों को
देखकर लगता है कि वे किसी यूटोपिया की बात कर रहे हैं।  ये औरतें ऐसी
हैं, तो गांव की औरतें ऐसी नहीं होतीं। उनके चित्र एक धारा के दिखते हैं,
मगर धारा का एक खतरा भी है कि यदि धारा कहीं पहुंच नहीं रही है। विनोद के
मुताबिक रत्नाकार के चित्रों में चकित करने वाला तत्व नदारद है।
अंत में लाल रत्नाकार ने कहा कि उन्हें बैठक के जरिये अपने चित्रों को नए
सिरे से देखने का मौका मिला। विनोद के तर्कों से असहमत होते हुए उन्होंने
कहा कि मैं जिस परिवेश से आया हूं वहां चकित करने वाले तत्व नहीं हैं।
कुमुदेश जी और श्री कृष्ण जी  की उपस्थिति श्रोताओं जैसी ही रही .

बुधवार, 27 अप्रैल 2011

बैठक में 17 अप्रैल को हुई चर्चा की रिपोर्ट


पिछली बैठक में चर्चा का विषय था सूफीवाद। पार्थिव और चंद्रभूषण ने इस
बैठक में सूफीमत पर प्रकाश डाला और बाद में सदस्यों ने इस पर चर्चा की।


पार्थिव ने चर्चा शुरु करते हुए कहा कि उन्होंने सिद्धांत के तौर पर

सूफीवाद को हमेशा जटिल पाया है। उनका कहना था कि सूफीवाद एक मध्ययुगीन
विचारधारा है और यह कहना कठिन है कि इस समय यह कितना प्रासंगिक है।



उन्होंने इस धारणा का खंडन किया कि भारत में सूफीवाद मुसलमान हमलावरों के

साथ आया। उन्होंने कहा कि वास्तव में इस्लाम तो भारत में सातवीं सदी में
ही आ गया था। हिंदू धर्म और इस्लाम के बीच संपर्क तभी से रहा है। सच तो
यह है कि इस देश में सूफीवाद की बुनियाद डालने वाले ख्वाजा मोइनुद्दीन
चिश्ती भारत में मोहम्मद गोरी से दो साल पहले ही पहुंच चुके थे। लिहाजा
यह कहना सही नहीं होगा कि सूफीवाद मुसलमान शासकों का उदार नकाब था जिसके
जरिए उन्होंने अपने जालिम चेहरे को ढंकने और हिंदुस्तानी अवाम को लुभाने
की कोशिश की।



उन्होंने बताया कि सूफियों के चार प्रमुख सिलसिलों नक्शबंदी, सोहरावरदी,

कादिरिया और चिश्तिया में से भारत में चिश्तियों की ही प्रमुखता है।
ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती अजमेरी इसी सिलसिलें के थे जिसे बाद में
कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, हजरत निजामुद्दीन औलिया और नसीरुद्दीन चिराग
देहली ने आगे बढ़ाया।



पार्थिव ने कहा कि इस्लाम अपने मूल रूप में सबसे सरल धर्म रहा है। वह एक

निराकार परम शक्ति की बात करता है और उपासना की किसी जटिल पद्धति को
अपनाने के बजाय अच्छे और समाजोपयोगी आचरण पर जोर देता है। इस्लाम मानता
है कि अल्लाह तक कोई नहीं पहुंच सकता। अलबत्ता पैगंबर मोहम्मद के दिखाए
रास्ते पर चलते हुए उसके ज्यादा से ज्यादा करीब पहुंचा जा सकता है। लेकिन
खिलाफत विलासी उमय्यदों के हाथ में जाने के बाद इसका रूप बिगड़ता गया।
इसका दायरा तंग होता गया और इसमें नए विचारों के लिए जगह भी घटती गई।



सूफीवाद ने इस्लाम में बढ़ती कट्टरता और कठोर शरीयती व्यवस्था से निराश

मुसलमानों को एक नई उम्मीद दी। इसने रक्स (नृत्य) और समां (संगीत) को
आराधना के तरीके के रूप में स्वीकार किया जिनका इस्लाम में कड़ा निषेध
था। इसने वली को आशिक या माशूक मान कर उसका गुणगान करने की परंपरा डाली।
यह परंपरागत इस्लामी सोच के खिलाफ जरूर था मगर इससे सूफीवाद का इस्लाम के
बाहर भी प्रसार हुआ।



लेकिन सूफी परंपरा में भी समय के साथ रूढि़वाद घर करता गया है। इसमें वली

की भूमिका नैतिक पथ प्रदर्शक (मुर्शिद) की अधिक और दुखदर्द से निजात
दिलाने वाले (पीर) की कम रही है। लेकिन धीरे-धीरे मुर्शिद की भूमिका खत्म
होती गई और सिर्फ पीर रह गए।



पार्थिव का कहना था कि नसीरुद्दीन चिराग दिल्ली के बाद सूफीवाद अपनी राह

से भटक गया। सूफी संत अपने उत्तराधिकारी का चयन करने में काफी सावधानी
बरतते थे। अमीर खुसरो सिर्फ इसलिए निजामुद्दीन औलिया के उत्तराधिकारी
नहीं बन सके कि वह सुलतान के दरबार में थे। संत बनने की ईसाइयों जैसी कोई
स्पष्ट परंपरा नहीं रहने के कारण वलियों की नाकाबिल संतानें, समाज में
रसूख वाले भ्रष्ट व्यक्ति, छोटे मोटे करिश्मे दिखाने में माहिर मदारी और
नीम हकीम किस्म के लोग वली बन गए।



इस तरह प्रेम, करुणा और नैतिक मूल्यों पर आधारित एक उदार मत अपनी राह से

भटक गया। खानकाहों में आम लोगों के बीच पला बढ़ा सूफी संगीत अमीरों की
बैठकों में सिमट गया। दरगाहों पर अपने दुखदर्द का हल ढूंढने वालों का
मेला अब भी लगता है मगर इसमें शरीक होने वालों का सूफीवाद से कोई नाता
नहीं रहा है। सूफीवाद अपने सिद्धांत में अब भी प्रासंगिक है मगर उसके
मौजूदा स्वरूप में आधुनिक समाज के लिए शायद ही कुछ हो।



चंद्रभूषण ने चर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि किसी भी धर्म के दो हिस्से

होते हैं। एक विधि और दूसरा निषेध। विधि यानी धर्म का एक परिचय। लेकिन
निषेध धर्म का असली चेहरा होता है और वही धर्म को उदार और कट्टर बनाता
है।



उनका कहना था कि सूफीवाद में निषेध कम हैं इसलिए इसमें तांकझांक की

गुंजाइश बनी रही। चूंकि वहां निषेध कम है इसलिए उसमें कल्पनाएं भी बहुत
हैं। उन्होंने भारत से बाहर सूफी संप्रदाय पर भी चर्चा की और कहा कि
तुर्की में सूफी संप्रदाय का बहुत प्रभाव है और आज भी उनके जैसा रक्स कोई
नहीं करता।



चंद्रभूषण का कहना था कि राजसत्ता के साथ सूफी कभी नहीं रहे। वे हमेशा

शुद्धतावाद के खिलाफ रहे क्योंकि वे मानते रहे कि शु्द्ध धर्म कुछ होता
ही नहीं।



उन्होंने कहा कि सूफी एक ऐसा मत है जिसमें ग्रे एरिया बहुत है। इसकी वजह

से वहां व्यक्ति ही नहीं परंपराएं भी आ जा सकती हैं। वह इस्लाम की तरह
उदार रहा है कि आप चाहें तो सूफी धर्म को अपना सकते हैं। वह यहूदी धर्म
की तरह कट्टर कभी नहीं हुआ कि कोई चाहे भी तो यहूदी नहीं बन सकता।



चर्चा में अनिल दुबे ने भी अपने विचार रखे।



इस चर्चा से पहले जगदीश यादव ने दो हफ़्ते पहले बैठक के सदस्यों के साथ की

गई विभिन्न ऐतिहासिक स्थलों की यात्रा की तस्वीरों का एक स्लाइड शो
प्रदर्शित किया, जिसकी सभी सदस्यों ने काफी सराहना की।
बैठक के सभी सदस्यों में इस बात पर सहमति बनी कि इस तरह के ऐतिहासिक
स्थलों की यात्रा का क्रम जारी रखा जाए और सूफीवाद पर और चर्चा की जाए।

जगदीश यादव के चित्रों की विडिओ क्लिप -
दौरे गुजिश्ता-बैठक महरौली विरासत यात्राः एक रिपोर्ट
अकीदतों के मेलमिलाप का शहर

 दिल्ली परिवहन निगम की एक चमचमाती लाल एयरकंडिशंड बस टूटीफूटी सड़क पर
हिचकोले खाती हुई बाईं ओर मुड़ी और टर्मिनल के एक कोने में जाकर खड़ी हो
गई। उसके पहियों से उड़े धूल के गुबार ने सड़क के दूसरी तरफ खड़े आदम खां के
मकबरे को पूरी तरह ढंक लिया। लेकिन 16 वीं सदी का यह टूटाफूटा मकबरा अगले
ही पल अपना बदन झाड़ कर फिर से खड़ा था। गुजरे और मौजूदा जमानों के बीच
तालमेल बिठाने की महरौली की कवायद सूरज उगने के साथ ही शुरू हो चुकी थी।

 किसी टाइम मशीन जैसी ही है लगभग 1300 साल पुरानी महरौली। इसकी तंग
गलियों से गुजरते हुए सदियों का फासला पल भर में तय हो जाता है। अभी
तोमरों के लालकोट में और अगले ही पल चौहानों के किला राय पिथौरा में।
गुलामों की गंधक बावली और मुगलिया दौर के झुटपुटे में बने जफर महल के बीच
की दूरी भी कुछ मिनटों की ही है।

 महरौली गांव की विरासत यात्रा पर निकले हम 10 दीवानों का पहला पड़ाव 19
वीं सदी की शुरुआत में बना योगमाया मंदिर था। सादे ढंग से बने इस मंदिर
की कोई खास इमारियाती अहमियत नहीं है। लेकिन आठवीं सदी के लालकोट के
खंडहरों पर बना यह मंदिर दिल्ली के मजहबी भाईचारे की मिसाल है। बादशाह
अकबर द्वितीय के जमाने में शुरू की गई फूलवालों की सैर के दौरान हर साल
इस मंदिर में फूलों का पंखा चढ़ाया जाता है।

 अकबर द्वितीय के बेटे मिर्जा जहांगीर ने 1812 में लाल किले में ब्रिटिश
रेसिडेंट आर्किबाल्ड सेटन पर गोली चला दी थी। सेटन इस हमले में बच गया और
उसने मिर्जा जहांगीर को गिरतार कर इलाहाबाद भिजवा दिया। मिर्जा जहांगीर
की मां मुमताज बेगम ने मन्नत मांगी कि उसके बेटे को रिहा कर दिया गया तो
वह कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह पर फूलों की चादर चढाएगी।

 मिर्जा जहांगीर दो साल बाद रिहा हो गया और उसकी मां ने शेख निजामुद्दीन
औलिया की दरगाह से पैदल चल कर कुतुब साहब की मजार पर फूलों की चादर चढ़ाई।
इसके साथ ही योगमाया मंदिर में फूलों का पंखा चढ़ाया गया और महरौली में
सात दिनों तक जश्न चलता रहा। यह सालाना जश्न अब भी हर साल बारिशों के बाद
मनाया जाता है और फूलवालों की इस सैर में सभी मजहबों के लोग शिरकत करते
हैं।

 योगमाया मंदिर से हम पैदल आदम खां के मकबरे तक पहुंचे। आदम खां बादशाह
अकबर की दाई मां माहम अंगा का बेटा था। उसने अकबर की दूसरी दाई मां जीजी
अंगा के शौहर अतगा खान की 1561 में हत्या कर दी। इसके बाद बादशाह ने आदम
खां को आगरा के किले की दीवार से नीचे फिंकवा दिया। माहम अंगा ने अपने
बेटे के मरने के गम में कुछ ही दिन बाद दम तोड़ दिया। अकबर के हुक्म पर ही
आदम खां और उसकी मां को इस मकबरे में दफनाया गया।

 एक ऊंचे चबूतरे पर बना आठ कोनों वाला यह मकबरा अपनी बनावट से लोधियों
के समय का लगता है। इसके ऊपर आधे चांद की शक्ल का गुंबद है और हर तरफ
बरामदा और अंदर घुसने का रास्ता। इस मकबरे के पीछे तोमर राजा अनंगपाल के
शहर लालकोट के खंडहर अब भी दिखाई देते हैं।

 हम सड़क पार कर एक संकरी सी गली से गुजरते हुए गंधक की बावली तक पहुंचे।
पांच मंजिल की इस खूबसूरत बावली को सुलतान अलतमश ने 13 वीं सदी में कुतुब
साहब के इस्तेमाल के लिए बनवाया था जिनकी दरगाह पास ही है। पतले खंभों
वाली इस बावली के दक्षिण की ओर गोल कुआं है और हर मंजिल पर बरामदा।
दिल्ली की सबसे पुरानी इस बावली का पानी अब लगभग पूरी तरह सूख चुका है।

 13 वीं सदी के सूफी संत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की दरगाह गए बिना
महरौली की सैर अधूरी रहती है। कुतुब साहब अजमेर के ख्वाजा मोइनुद्दीन
चिश्ती के मुरीद थे। उनकी दरगाह के अहाते में मोइनुद्दीन चिश्ती के ही
मुरीद रहे शेख हमीदुद्दीन नागौरी भी दफन हैं। दरगाह के अंदर जमातखाना,
वजूखाना, मस्जिद और नौबतखाना को बादशाहों ने अलग- अलग समय में बनवाया था।

 दरगाह के नजदीक हमने रंगबिरंगी टोपियां और फूल खरीदे और अंदर काफी देर
तक कव्वालियों का मजा लिया। दरगाह के अजमेरी दरवाजे के नजदीक दो मीनारों
और तीन मेहराबों वाली मोती मस्जिद है जिसे औरंगजेब के बेटे बहादुर शाह
प्रथम ने बनवाया था। संगमरमर की इस मस्जिद की बनावट लाल किले में औरंगजेब
की बनवाई मोती मस्जिद जैसी ही है।

 अजमेरी दरवाजे से कुछ ही दूरी पर मुगलों की आखिरी इमारतों में से एक
जफर महल है जिसे अकबर द्वितीय ने 18 वीं सदी में बनवाया था। अंतिम मुगल
बादशाह बहादुर शाह जफर के समय में बनाए गए इस महल का दरवाजा काफी भव्य
है। लाल बलुआ पत्थर और संगमरमर से बने तीन मंजिले इस महल का ज्यादातर
हिस्सा ढह चुका है। अकबर द्वितीय समेत मुगल घराने के कई जानीमानी
हस्तियां इस महल की चहारदीवारी में दफन हैं।

 जफर महल से हौज शम्सी तक का लगभग एक किलोमीटर का सफर तय करने में हमें
पूरा घंटा लग गया। संकरी सड़क पर जबर्दस्त भीड़भाड़ में हमारी कारों के पहिए
थम गए। हौज शम्सी के पार्किंग की जगह ढूंढना भी टेढ़ी खीर था। इन
परेशानियों से जूझने के बावजूद हम जहाज महल तक पहुंचने में कामयाब रहे जो
हमारे इस सफर की आखिरी मंजिल था।

 हौज शम्सी के एक छोर पर जहाज महल को लोधियों के जमाने में सराय के तौर
पर बनाया गया था। दूर से देखने पर यह हौज शम्सी में तैरता दिखाई देता है
और इसीलिए इसे जहाज महल कहा गया। पूरब की ओर दरवाजा वाले इस सराय में एक
दालान के इर्दगिर्द मेहराबदार कोठरियां बनी हैं। इसमें एक छोटी से मस्जिद
भी हुआ करती थी और नफीस छतरियां इस इमारत की खूबसूरती को बढ़ाती है। इस
इमारत का ज्यादातर हिस्सा टूटीफूटी हालत में है।

 हौज शम्सी को सुलतान अलतमश ने 1230 में बनवाया था। कहते हैं कि उसे
पैगंबर मोहम्मद ने सपने में इस जगह पर तालाब बनाने का हुक्म दिया था।
तालाब के एक छोर पर लाल बलुआ पत्थर का दो मंजिला मंडप है। बारह खंभों पर
टिके इस मंडप के बारे में कहानी है कि सुलतान को इस जगह मोहम्मद साहब के
घोड़े के खुरों के निशान मिले थे। यह मंडप कभी तालाब के बीच में हुआ करता
था मगर जमीन माफिया के अवैध कब्जों ने इसे एक किनारे धकेल दिया है। दो
हेक्टेयर में फैले इस तालाब कि किनारे सत्रहवीं सदी के फारसी के मशहूर
लेखक अब्दुल हक देहलवी दफन हैं।

 तकरीबन 1300 साल का सफर तीन घंटों में पूरा करने के बाद हम बुरी तरह थक
चुके थे। ढाबे में बैठ कर चाय की चुस्की लेते हुए हमने चारों ओर  नजर
दौड़ाई। हर तरफ इंसानों का रेला और शोरशराबा। मिर्च मसाले से लेकर
हार्डवेयर और हुक्के तक की दुकानें। रेहड़ी-खोमचा वालों की जमघट। अकीदतों
के मेलमिलाप का शहर महरौली अब हिंदुस्तान के किसी भी छोटे से कस्बे में
तब्दील हो गया है।


रविवार, 13 फ़रवरी 2011

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

अपने-अपने तहरीर चौक


विनोद वर्मा विनोद वर्मा | सोमवार, 07 फरवरी 2011, 15:15 IST

मिस्र का तहरीर चौक अपने नाम को सार्थक करने जा रहा है. तहरीर यानी आज़ादी.
जिस दिन होस्नी मुबारक़ अपनी गद्दी छोड़ेंगे, जनक्रांति के इतिहास में एक और अध्याय जुड़ जाएगा. जैसा कि ट्यूनिशिया में जुड़ चुका है और यमन में इसकी सुगबुगाहट दिख रही है.
काहिरा के इस तहरीर चौक ने सबक सिखाया है कि लोकतंत्र सिर्फ़ पाँच साल के पाँच साल वोट देने भर का नाम नहीं है. इसने एक आस जताई है कि हर कि सरकारों को उखाड़ फेंकने के लिए राजनीतिक दलों की ओर तकते रहना ही एकमात्र रास्ता नहीं है.
मिस्र की जनता ने दुनिया के हर जागरुक नागरिक के मन में यह सवाल ज़रुर पैदा किया होगा कि हमारा तहरीर चौक कहाँ है.
अगर लोकतंत्र सचमुच लोकतंत्र है तो हर गाँव में, हर जनपद में, हर शहर में, हर ज़िला मुख्यालय में, हर राज्य की राजधानी में और फिर देश की राजधानी में एक तहरीर चौक होना चाहिए. अगर लोकतंत्र सच में जागृत है तो हर नागरिक को अपने तहरीर चौक तक आने का मौक़ा मिलना चाहिए और सरकारों में इन लोगों की बातें सुनने का माद्दा होना चाहिए.
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्य में पंचायत के स्तर पर 'राइट टू रिकॉल' यानी किसी चुने हुए जनप्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार भी जनता को मिला हुआ है. दोनों ही प्रदेशों में जनता समय-समय पर इसका प्रयोग भी कर रही है.
कितना अच्छा होगा यदि विधानसभाओं में और संसद में चुने गए प्रतिनिधियों के लिए भी इसी तरह के प्रावधान कर दिए जाएँ. यक़ीन मानिए कि न सांसद ये प्रावधान लागू होने देंगे और न राज्य विधानसभाओं के सदस्य.
लेकिन भारत जैसे देश में तो तहरीर चौक का होना भी संकट का हल नहीं दिखता.
आपातकाल के बाद देश में तहरीर चौक जैसा ही माहौल था. चुनाव के ज़रिए जनता ने एक तानाशाह सरकार को उखाड़ फेंका. लेकिन जो विकल्प मिला उसने क्या किया? वह तो पाँच साल का कार्यकाल तक पूरा नहीं कर सकी.
बोफ़ोर्स घाटाले से भ्रष्टाचार विरोधी जो मुहीम शुरु हुई उसने एक सरकार का दम तो उखाड़ दिया लेकिन सत्ता में आकर उन तमाम नारों का दम भी उखड़ गया.
पिछले दो दशकों में प्रत्यक्ष और परोक्ष रुप से हर राजनीतिक दल को सत्ता में रहने या सत्ता को प्रभावित करने का मौक़ा मिला है. अलग-अलग राज्यों में भी सरकारों में जनता उन्हें देख रही है. लेकिन कोई ऐसा दल नहीं है जो आस जगाता हो.
जो भाजपा दिल्ली में कांग्रेस पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाती है उसी पार्टी का मुख्यमंत्री कर्नाटक में भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरा दिखाई देता है. दलितों की बहुजन समाज पार्टी का चेहरा भी जनता के सामने है और वामपंथी दलों की कलई भी जनता के सामने खुल गई दिखती है.
अगर राज्यों की राजधानी के लोग अपना तहरीर चौक पा भी जाएँगे और दिल्ली में जनता आकर अपना तहरीर चौक ढूँढ़ भी लेगी तो वह उस चौराहे पर आकर क्या मांगेगी?
पाँच साला चुनावों में जब वोट डालने का मौक़ा आता है तो यह संकट बना रहता है कि साँपनाथ को चुनें या नागनाथ को?
ऐसे में अगर जनता भ्रष्ट, ग़रीब विरोधी और असंवेदनशील सरकारों को उखाड़ फेंकने का सोचे भी तो उसके पास सत्ता में बिठाने के लिए जो विकल्प हैं वे उतने ही घूसखोर, बाज़ार समर्थक और निष्ठुर दिखाई देते हैं.
यह कहना भी मुश्किल है कि सरकारें तहरीर चौक को बर्दाश्त कर सकेंगीं.
ये ठीक है कि 'जलियाँ वाला बाग़' फिर न होगा और भारत में 'थ्येनआनमन चौक' की पुनरावृत्ति भी संभव नहीं है लेकिन हमारी सरकारें आंदोलनों को जिस तरह कुचलती हैं वह बहुत लोकतांत्रिक नहीं है.
दिल्ली के बोट क्लब ने कई ऐतिहासिक रैलियाँ देखी हैं और वह अनगिनत प्रदर्शनों का गवाह है. एक समय वह हमारा अपना तहरीर चौक था. क्या आपने कभी सोचा कि वहाँ ऐसे लोकतांत्रिक प्रदर्शनों पर क्यों रोक लगाई गई और क्यों विरोध प्रदर्शनों को जंतरमंतर और संसद मार्ग की तंग सड़कों तक समेट दिया गया?
बहरहाल, हमें अपना तहरीर चौक मिले न मिले, जब किसी की भी सार्वजनिक रुप से फ़ज़ीहत होगी तो हम कह तो सकेंगे कि 'फलाँ का तहरीर चौक पर होस्नी मुबारक हो गया'. ठीक वैसे ही जैसे दलाली के लिए बोफ़ोर्स एक वैकल्पिक शब्द हो गया है और जब भी कोई घपला करता है तो अक्सर लोग कहते हैं कि 'उसने बोफ़ोर्स कर दिया'.
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"तहरीर चौक" का सवाल मिस्र में तो हो सकता है पर हिंदुस्तान में बगावत वह भी बी.बी.सी. का ब्लॉग पढ़ने वालों से, कमाल की बात. यही कारण  है की सभ्यता और संस्कृति का नेता रहा मिस्र समकालीन युग का राजनैतिक नेतृत्व भी हासिल ही कर लिया, अमेरिका की आतंकी साजिशें मुसलमानों की मुखालफत ने उन्हें ही नेतृत्व की संभावनाओं के लिए खड़ा करने में बड़ा सहयोग कर रहा है. ऐसे हालात किसी न किसी निरंकुश तानाशाह द्वारा ही किये जाते हैं. "भारत का सदियों पुराना द्विज और दलित आन्दोलन के दमन के जब सारे उपाय नाकाफी हो गए तब द्विज और दलित गठबंधन ने जो कुछ आज़ादी के बाद किया और दलित की दुर्दशा के लिए द्विज अपने जिम्मेदार होने को कभी नहीं स्वीकारता है, पर दलित की सत्ता में हकदार होने से नहीं चूकता.  मूलतः भारत में जो राजनैतिक बदलाव अब तक हुए हैं उनसे बदलाव लगभग न के बराबर हुए बल्कि पहले से बदतर स्थितियां बनीं. भारत की जनता इन हालातों पर अंततः अपने को ही कोसती रही हैं और उनके नेता  'होस्नी मुबारक' बनते गए. और जल्दी जल्दी ही 'होस्नी मुबारक' हो गए.
यहाँ एक बड़ा सवाल बिनोद जी ने उठाया है कि 'फलाँ का तहरीर चौक पर होस्नी मुबारक हो गया' क्या यह 'जूमला' चल निकलेगा मुझे तो संदेह है क्योंकि यहाँ पर हर नेता अफसर कर्मचारी और दुराचारी/भ्रष्टाचारी  'होस्नी मुबारक' होने का ख्वाब संजोये हुए है. यदि उसे सचमुच का किसी भी चौक पर 'फलाँ का तहरीर चौक पर होस्नी मुबारक हो गया' नज़र आया तो ........................... 



मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

राम शिरोमणि शुक्ल एवं श्रवण गुप्ता की कविता

राम शिरोमणि शुक्ल एवं श्रवण गुप्ता की कविता
 


बुधवार, 26 जनवरी 2011

एक पाती बापू के नाम


विनोद वर्मा विनोद वर्मा | शुक्रवार, 21 जनवरी 2011, 15:32 IST

बापू तुमको नागार्जुन याद है? अरे वही यायावर, पागल क़िस्म का कवि जो तुम्हारे जाने के बाद जनकवि कहलाया? वही जिसे लोग बाबा-बाबा कहा करते थे.
उसने तुम्हारे तीनों बंदरों को प्रतीक बनाकर एक कविता लिखी थी. लंबी कविता की चार पंक्तियाँ सुनो,
बापू के भी ताऊ निकले तीनों बंदर बापू के
सरल सूत्र उलझाऊ निकले तीनों बंदर बापू के
सचमुच जीवन दानी निकले तीनों बंदर बापू के
ज्ञानी निकले, ध्यानी निकले तीनों बंदर बापू के

तुमको बुरा लग रहा होगा कि तुम्हारे बंदरों के बारे में ये क्या-क्या लिख दिया. लेकिन तुम्हारे बंदर सचमुच ऐसे ही हो गए हैं. तुम्हारे जीते-जी तो वे तुम्हारी बात माने आँख, कान और मुंह पर हाथ रखे बैठे रहे. लेकिन उसके बाद उन्होंने वही करना शुरु कर दिया जिसके लिए तुमने मना किया था.
देखो ना जिस बंदर से तुमने कहा था कि बुरा मत देखो वह इन दिनों क्या-क्या देख रहा है. उसने देखा कि खेल का आयोजन करने वाले सैकड़ों करोड़ रुपयों का खेल कर गए और देश की रक्षा करने वाले आदर्श घोटाला कर गए.
तुम दलितों के उत्थान की बात करते रह गए लेकिन तुम्हारा बंदर देख रहा है कि एक दलित का इतना उत्थान हो गया कि उस पर एक लाख 76 हज़ार करोड़ रुपए के घोटालों का आरोप लगने लगा.
उसने एक दिन देख लिया कि तुम्हारी कांग्रेस की नेत्री तुम्हारी विशालकाय तस्वीर के सामने एक किताब का लोकार्पण कर रही हैं जिसमें कहा गया है कि वह भी तुम्हारी तरह महान त्याग करने वाली हैं.
वह देख रहा है कि एक दलित लड़की से बलात्कार हो रहा है और जिस पर बलात्कार का आरोप है वह नाम से तो पुरुषोत्तम है यानी पुरुषों में उत्तम लेकिन बयान दे रहा है कि वह नपुंसक है.
और जिस बंदर को तुम कह गए थे कि बुरा मत सुनना वह जहाँ-तहाँ जाकर तरह-तरह की बातें सुन रहा है.
वह सुन रहा है कि देश का प्रधानमंत्री कह रहा है कि महंगाई इसलिए बढ़ रही है क्योंकि आम लोगों के पास बहुत पैसा आ गया है.
संघ याद है ना तुम्हें? वही गोडसे वाला संघ. तुम्हारा बंदर सुन रहा है कि संघ के नेता अब जगह-जगह विस्फोट आदि भी करने लगे हैं जिससे कि मुसलमानों को सबक सिखाया जा सके.
उसने सुना है कि जनसेवक अब बिस्तर पर नहीं सोते बल्कि नोटों पर सोते हैं. वही तुम्हारी तस्वीरों वाले नोटों के बिस्तर पर. दो जनसेवकों ने शादी की और उनके पास 360 करोड़ रुपयों की संपत्ति निकली है.
और वो बंदर जिसे तुमने कहा था कि बुरा मत कहना वह तो और शातिर हो गया है. वह कहता तो कुछ नहीं लेकिन वह लोगों से न जाने कैसी कैसी बातें कहलवा रहा है.
अभी उसने सुप्रीम कोर्ट के जज से कहलवा दिया कि विदेशों में रखा काला धन देश की संपत्ति की चोरी है. कैसी बुरी बात है ना बापू, लोग इतनी मेहनत कर-करके बैंकों में पैसा जमा करें और जज उसे चोरी कह दे?
एक दिन वह नीरा राडिया नाम की एक भली महिला के कान में पता नहीं क्या कह आया कि उसने फ़ोन पर न जाने कितने लोगों से वो बातें कह दीं जो उसे नहीं कहनी चाहिए थीं.
अपनी दिल्ली में एक अच्छे वकील हैं शांति भूषण. न्याय के मंत्री भी रहे हैं. तुम्हारे बंदर ने उनसे कहलवा दिया है कि सुप्रीम कोर्ट के कितने ही जज भ्रष्ट हैं.
जज को बुरा कहना कितनी बुरी बात है. लेकिन तुम्हारा बंदर माने तब ना. उसने एक और जज से कहलवा दिया कि तुम्हारे नेहरु के इलाहाबाद का हाईकोर्ट सड़ गया है.
लेकिन ऐसी बुरी बातों का बुरा मानना ही नहीं चाहिए. अब दामाद आदि घोटाला कर दें तो इसका बुरा मानकर किसी पूर्व मुख्य न्यायाधीश को किसी पद से इस्तीफ़ा तो नहीं दे देना चाहिए ना?
ऐसा नहीं है कि बापू कि सब कुछ बुरा ही बुरा है. एक अच्छी बात यह है कि तुम्हारे तीनों बंदरों की आत्मा अब भी अच्छी है और अब वह लोकतंत्र के चौथे खंभे में समा गई है.
इसलिए मीडिया या प्रेस नाम का यह स्तंभ अब न बुरा देखता है, न सुनता है और न कहता है. वह सिर्फ़ अच्छी-अच्छी बातें कहता-लिखता है वह भी पैसे लेकर.
तुम नागार्जुन की बंदर वाली कविता पूरी पढ़ लो तो यह भी पढ़ोगे,
बापू को ही बना रहे हैं तीनों बंदर बापू के

बात तो बुरी है बापू लेकिन चिंता मत करो, 30 जनवरी आने वाली है. तुम्हारी पुण्यतिथि. और पूरा देश बारी-बारी से
राजघाट जाकर माफ़ी मांग लेगा. तुम भी देखना, टीवी पर लाइव आएगा. 

सोमवार, 24 जनवरी 2011

रविवार, 23 जनवरी, 2011 को हुई बैठक में चर्चा का विषय था, 'राज्य और स्वतंत्रता'.

चर्चा की शुरुआत सुदीप ठाकुर ने की. उनका कहना था कि लोकतंत्र ही दुनिया का सबसे अच्छा तंत्र है और तमाम खामियों के वाबजूद वे मानते हैं कि भारतीय लोकतंत्र मज़बूत है और आगे और मज़बूत होगा. उनका कहना था कि आज जो परिस्थितियाँ बन रही हैं उससे बहुत से लोगों को लगता है कि आपात काल में भी इतनी ख़राब स्थिति नहीं है.

अनिल दुबे ने कहा कि संसदीय रिपोर्टिंग के अपने अनुभव से वे जानते हैं कि संसद में बहसों के लिए किस तरह से शब्दों के चयन में सावधानी बरती जाती है और ऐसा लगता है कि बैठक में भी ऐसा हुआ है और पूर्व निर्धारित 'देशद्रोह' पर चर्चा करने के स्थान पर 'राज्य और स्वतंत्रता' जैसा शब्द चुन लिया गया है. उन्होंने कहा कि वे समझ नहीं पा रहे हैं कि क्यों लोग इस चर्चा को बाहर ले जाने पर आपत्ति कर रहे हैं और बंद कमरे में ही बौद्धिक विलास करने में व्यस्त हैं. उन्होंने सवाल उठाया कि बिनायक सेन और अरुंधति राय जैसे लोगों के लिए तो आवाज़ उठाने वाले लोग हैं लेकिन छत्तीसगढ़, झारखंड और उड़ीसा की जेलों में उन्हीं धाराओं में बंद हज़ारों आदिवासियों की आवाज़ उठाने वाले लोग नहीं हैं.

तड़ित कुमार ने कहा कि उन्हें बार-बार लगता है कि राज्य की अवधारणा स्वतंत्रता को सीमित करती है और इसलिए वे सोचते हैं कि 'स्टेटलेस स्टेट' या राज्यविहीन समाज ही इसका विकल्प हो सकता है. उनका कहना था कि राज्य ही लोगों को बांधता है. बैठक में आमंत्रित प्रोफ़ेसर कुमुदेश कुमार का कहना था कि राज्य की जैसी अवधारणा है उसमें अक्सर सरकार की राज्य की तरह दिखती है क्योंकि लोकतंत्र में सरकार ही राज्य की तरह निर्णय लेती है. उन्होंने कहा कि लोकतंत्र में ही यह ख़तरा बहुत होता है कि वहाँ आतंकवाद पैदा हो जाए और इसकी वजह यह है कि लोकतंत्र में सभी को एक हद तक लोगों को अपनी बात कहने की आज़ादी होती है फिर उसके बाद ही किसी व्यक्ति या संगठन पर कार्रवाई होती है. उन्होंने कहा कि अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि लोकतंत्र ही किसी देश के लिए सबसे अच्छी प्रणाली है.

पार्थिव कुमार ने इस चर्चा में हिस्सा लेते हुए सरकार के षडयंत्र की बात उठाई. उनका कहना था कि पिछले दिनों वित्तमंत्रियों के सम्मेलन में वित्त मंत्रियों ने कहा कि महंगाई इसलिए बढ़ गई है क्योंकि लोगों की क्रय शक्ति बढ़ गई है. उनका कहना था कि सरकार अब ग़रीबी की बात नहीं करती बल्कि महंगाई कम करने की बात करती है. उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि महंगाई कम करने के लिए सरकार निर्यात पर रोक लगाती है और आयात को बढ़ावा देती है. ऐसे में स्थानीय किसानों या उत्पादकों को अपने सामान की क़ीमत कम मिलती है और आख़िर में पिसता देश का ही आदमी है. सरकार भूल कर भी सब्सिडी देने की बात नहीं करती और कहती है कि इससे तो अर्थव्यवस्था ही गड़बड़ा जाएगी. स्वतंत्रता के सवाल पर उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता एक दायरे तक सीमित है और यह दायरा आर्थिक दायरा है. सरकार किसी भी विरोध को तभी तक बर्दास्त करती है जब तक कि उसके आर्थिक हितों पर आँच नहीं आती.

बैठक में पहली बार शामिल हुए शुभ्रांशु चौधरी ने कहा कि यह लोकतंत्र नहीं धनतंत्र हो गया है. उन्होंने कहा कि वे अपने अनुभवों से कह सकते हैं कि दक्षिण एशियाई देशों में भारत में ही लोकतंत्र की स्थिति सबसे बेहतर है. उनका सुझाव था कि उन लोगों की भी आवाज़ सुने जाने की कोशिश की जानी चाहिए जिनके पास अपनी आवाज़ लोगों तक पहुँचाने का काई साधन नहीं है. उन्होंने कहा कि वे एक प्रयोग कर रहे हैं और उन्हें लगता है कि मोबाइल फ़ोन शायद आने वाले दिनों में स्वतंत्रता का एक कारगर हथियार बन सकता है क्योंकि उसकी पहुँच इंटरनेट की तुलना में बहुत अधिक है. इंटरनेट का प्रयोग सिर्फ़ 0.7 प्रतिशत लोग करते हैं जबकि मोबाइल का प्रयोग क़रीब 70 करोड़ लोग करने लगे हैं.

बैठक के एक और आमंत्रित सदस्य प्रोफ़ेसर लोहानी ने पार्थिव से सहमत होते हुए कहा कि लोकतंत्र धनतंत्र हो गया है. उनका कहना था कि सत्ता के विरुद्ध लोकतांत्रिक लड़ाइयों को राजनेता भी तभी तक साथ देते हैं जब तक कि वे ख़ुद सत्ता तक नहीं पहुँच जाते. उन्होंने मी़डिया के व्यवहार को लेकर भी सवाल उठाए.

विनोद वर्मा ने कहा कि लोकतंत्र की अवधारण तो गण के लिए तंत्र बनाने की थी लेकिन दिखता ऐसा है मानो तंत्र अपने लिए गण का इस्तेमाल कर रहा है. उन्होंने कहा कि ग्राम पंचायत से लेकर ज़िले, फिर राज्य और आख़िरकार देश तक हर स्तर पर सिर्फ़ दस लोग होते हैं जो इस तंत्र को चला रहे हैं. उन्होंने लोगों की तटस्थता पर चिंता जताते हुए कहा कि जिस तरह से लोकतंत्र के तीनों स्तंभों में गड़बड़ी दिख रही है उससे लगता है कि लोकतंत्र पर ख़तरा मंडरा रहा है.

डॉ.लाल रत्नाकर ने कहा कि संगठनों की लड़ाई में यह हमेशा से होता आया है कि संघर्ष करने वाला हमेशा संघर्ष करता रहता है और जो संगठन संघर्ष का नेतृत्व कर रहे होते हैं वे विषय बदल लेते हैं.

श्रवण ने इस चर्चा में हस्तक्षेप करते हुए बैठक में हो रही चर्चा को कमरे से बाहर ले जाकर सेमीनार जैसे आयोजन करने की ज़ोरदार वकालत की. लेकिन कृष्ण ने कहा कि इसमें कई व्यवहारिक दिक्कतें सामने आ सकती हैं जिसमें इस तरह के आयोजनों को जारी रखने का सवाल भी शामिल है.

चर्चा के अंत में रामशिरोमणि शुक्ला ने कहा कि उनके मन में यह सवाल बार-बार उठता है कि मूलभूत समस्याओं पर चर्चा नहीं होती. उन्होंने उदाहरण देकर कहा कि स्कूल जाने के लिए साइकिल और ड्रेस तो सरकार दे रही है लेकिन शिक्षकों और शिक्षा की व्यवस्था करने की ओर सरकार का कोई ध्यान नहीं है.

अगली बैठक छह फ़रवरी को होगी जिसमें अनिल दुबे की कहानी का पाठ होगा और उस पर चर्चा होगी.