बुधवार, 31 मार्च 2010

बर्फ पर पड़ा दर्द.........



श्रवण गुप्ता..

करतार सिंह की जान हलक में अटकी है......जब वह सांस छोड़ता तो रुक – रुक कर बाहर आती....मानो किसी ने पकड़ रखी हो......सांस लेने में भी वैसा ही भारीपन.....,सांस अपने - आप ना अंदर जाती और ना बाहर आती.....और सिर्फ सांस ही क्यों.....लगता पूरे शरीर पर किसी और का कब्जा हो गया है....।

आंखें खुली रहतीं पर क्या देख रही हैं पता नहीं चलता..। पैर रखता कहीं, पड़ते कहीं । घड़ी भर को अगर आंख लग भी गयी तो लगता गांव के श्मशान वाला भूत गला दबा रहा है....सोते – जागते उसकी आत्मा छटपटाती रहती।

करतार सिंह का मन उसके काबू में नहीं है....काबू तो दूर...वह तो जैसे शरीर से ही अलग हो गया है...करतार सिंह अब सिर्फ एक शरीर है। लाचार और बेबस। करतार सिंह सोचता है- आदमी जब पागल हो जाता होगा तो ऐसे ही मन और शरीर अलग हो जाते होंगे।

करतार सिंह सोचता है- पहले मन को बस में करना पड़ेगा। अगर मन पकड़ में आ गया तो उसकी पीड़ा कम हो जाएगी । यही सोचकर वह मन को घेरने की कोशिश करता। उसे एक बच्चे की तरह अपने पास बिठाता। फुसलाता और समझाता... फिर उसके आगे अपनी विपदा रोता .....। उसे बताता कि कैसे कोई अजदहा अंदर ही अंदर उसे खाए जा रहा है। वह उससे यह भी पूछता कि क्यों एक ही बात पकड़कर वह गोल - गोल घूमे जा रहा है...वह चाहता था कि बातों में फंसाकर, मन के रुख को दूसरी तरफ मोड़ दिया जाए.........लेकिन करतार सिंह की सारी योजना धरी की धरी रह जाती । मन को पकड़ने और उसे काबू में करने की कोशिश में सुबह से शाम हो जाती लेकिन वह उसके हाथ नहीं आता। रहट में लगे बैल की तरह बस गोल – गोल घूमता जाता.. घूमता जाता।






करतार सिंह की तकलीफ वैसी की वैसी बनी रहती। उसे नहीं लगता कोई वैद्य, डॉक्टर या हकीम उसे इस तकलीफ से निजात दिला पाएगा। करतार सिंह की दिक्कत यह भी थी कि वह किसी को कुछ बता नहीं सकता था। क्या करे करतार सिंह.. कहां जाए......किसे दिखाए अपना घाव...?

पहले ऐसा नहीं था। करतार सिंह जब सुबह उठता तो मन में एक पुलक - सी रहती..

सुबह की तेज पत्ती वाली चाय। मिट्टी के चूल्हे के पास उकड़ूं बैठ कर, गड़वी

से ढालकर पीतल के गिलास से चाय पीती घर वाली, स्कूल के लिए तैयार होता बेटा...और सुबह होते ही मेरा पुत्तर - मेरा पुत्तर कह कर करतार सिंह से लाड़ जताती उसकी बूढ़ी मां, सब उसमें हौसला जगाते। चाहे कैसे भी दिन हों, मन में एक हिम्मत बनी रहती...एक उमंग होती जो इस उम्र में भी उसे बैल की तरह खटाए रखती थी।

कितने काम होते थे करतार सिंह को.....सुबह उठते ही पहले अपने खेत की ओर जाता, फिर उधर ही दिशा – मैदान। गर्मी होती तो थोड़ी दंड - बैठक और जाड़े के दिनों में तेल - मालिश और रहट वाले कुंए पर स्नान। इसके बाद ही घर लौटता करतार सिंह। कुछ खाकर, फिर खेत ही पहुंचता। बीस बीघा खेत था उसके पास। नहर किनारे।

करतार सिंह की खेतों में जान बसती। कोई क्या जाने, खेत में अपनी फसल लहलहाती देख उसका मन कैसा - कैसा करने लगता। कभी रिश्तेदारी या शादी - ब्याह में गांव से एक - दो दिन के लिए बाहर जाता तो वहां उसका मन नहीं लगता। लौटकर सबसे पहले अपने खेतों का ही रुख करता करतार सिंह। शहर भी जाता तो रास्ते से अपनी फसलों को निहारता रहता जैसे जाने की हिम्मत जुटा रहा हो।

साल में ज्यादातर दिन करतार सिंह के खेत में ही कटते। हाड़ी हो या सोअनी, करतार सिंह को सांस लेने की भी फुरसत नहीं मिलती। फसल जब पकने को होती, तो सबकी बात अनसुनी कर करतार सिंह खेत में बनी अपनी झोपड़ी में ही सोता। नींद में भी वह अपने खेत - खलिहान ही देखता....कभी मेड़ पर खड़ा, कभी नहर से खेत तक पानी की नाले से घास निकालता, कभी फसलों के बीच घूमता तो कभी बैलगाड़ी से मंडी अनाज ले जाता....।

वही करतार अब अपने - आपसे लड़ रहा है, खेत-खलिहान, घर - द्वार सब जैसे उसके लिए खत्म हो गये हैं। अभी महीना भर पहले तक सब ठीक था। करतार सिंह अपनी गृहस्थी में मस्त था। ये ठीक है कि बीस बीघे में रोज कमाओ, रोज खाओ वाली हालत रहती लेकिन उसके दिन आराम से कट रहे थे। इतना तो हो ही जाता कि परिवार को पालने और उन्हें खुश रखने में किसी चीज की कमी नहीं खटकती। अपने पिंड में खुश था करतार सिंह। पुरखों का प्रताप था, वाहे गुरु की मेहर थी उस पर। शादी के बाद बेटा हो गया था और फिर दो जुड़वा बेटियां..।

बेटा स्कूल जाने लगा था और बेटियां मां के साथ लगकर बड़ी हो रही थीं। गांव में बहुत कम ही लोग बेटियों को स्कूल भेजते। करतार सिंह की बेटियां भी स्कूल नहीं जाती.. घर में गुड्डा- गुड़िया खेलती रहतीं।

बेटियों से उसे कोई शिकायत नहीं थी लेकिन उसके मन के किसी कोने में एक और बेटे की आस बैठी थी सांप की तरह फन उठाए। उसे लगता जैसे बैलगाड़ी में दो बैल लगते हैं वैसे ही जीवन की गाड़ी खींचने के लिए कम से कम दो बेटे होने चाहिए। ज्यादा हो तो क्या कहने। करतार सिंह को मालूम था एक जाट सिक्ख परिवार में एक से ज्यादा बेटे होने का क्या मतलब है।

करतार सिंह को याद है कुछ साल पहले नहर से पानी निकालने को लेकर कुछ लोगों से उसका झगड़ा हो गया था। लाठियां निकल गयी थीं गांव में और खून के घूंट पीकर उसे पंचायत की शरण में जाना पड़ा था लेकिन अगर उसके दो बेटे आजू - बाजू खड़े रहते तो फैसला वहीं के वहीं हो जाता.....।

शायद करतार सिंह की किस्मत मे तकलीफ भोगना लिखा था इसलिए एक और बेटे की हसरत ने जोर मारा और उसकी घरवाली के पैर फिर भारी हो गये। करतार सिंह बेटों का ख्वाब देखने लगा..

जैसे - जैसे करतार सिंह की घरवाली के दिन चढ़ते गये करतार सिंह बेचैन रहने लगा। उसे लगता उसने कोई परीक्षा दी है जिसका परिणाम आने वाला है। आखिर वह दिन भी आ ही गया । फागुन की एक रात का पहला पहर बीतते ही उसकी बीवी को दर्द शुरू हो गया और रात के तीसरे पहर के बीतते ना बीतते बीवी की देह खाली हो गयी। एक नवजात शिशु की आवाज पूरे घर में गूंज गई....... करतार सिंह पर मानो पहाड़ टूट पड़ा....उसका डर सचाई की शक्ल अख्तियार कर उसके सामने खड़ा हो गया...उसके मुंह से कोई आवाज नहीं निकली.......वह उसी अंधेरे में घर से निकल पड़ा.....पैर अपने आप खेतों की ओर बढ़ गए.... वह जाकर अपनी झोपड़ी में बैठ गया...जैसे जड़ हो गया हो।


सुबह हो गयी थी लेकिन करतार सिंह के जीवन में अंधेरा छा गया था। वर्षों की उसकी आस एक झटके में टूट गई ..बड़ा कमजोर, असहाय महसूस कर रहा था करतार सिंह। उसे खुद पर भी गुस्सा आ रहा था। क्यों उसने ऐसी उम्मीद पाल ली जिसे पूरा करना उसके हाथ में नहीं था? क्यों सपने देखने लगा था बेटे का ?

रात के तीसरे पहर अपनी झोपड़ी में आया करतार सिंह दिन भर वहीं बैठा रहा। पहले उसके अंदर दुख और निराशा के ज्वार उठे और फिर क्रोध और प्रतिशोध के बगूले। उसे बार – बार लग रहा था कि उसे किसी ने धोखा दिया है। आखिर करतार सिंह ने फैसला कर लिया और अपनी झोपड़ी से निकल आया। करतार सिंह अपने घर जा रहा था। दूर से देखकर लग रहा था जैसे कोई अफीमची शाम ढले अपने घर लौट रहा है........

अंधेरा घिर आया था। घरों में दिया - बत्ती जलाने का समय हो रहा था। दाई काम निपटा कर जा चुकी थी। नाते - रिश्तेदार की औरतें उसकी बीवी की तीमारदारी में लगी हुई थीं। जैसे ही मौका मिला करतार सिंह अपनी बीवी के कमरे में चला गया।

अंदर बीवी निढ़ाल पड़ी थी। चेहरा स्याह था जैसे बीमार हो। उसने करतार सिंह को कोठरी में आते देख लिया था लेकिन जब तक वह उठने की कोशिश करती करतार सिंह दूसरी तरफ से उसके सिरहाने पहुंच चुका था।

वह समझ गयी कि वह बच्ची को देखना नहीं चाहता। उसके दिल में एक हूक - सी उठी। वह करतार सिंह की तरफ घूम गई। अब उसकी पीठ बच्ची की तरफ थी।

करतार सिंह तख्त पर बैठ गया और फुसफुसाते हुए बीवी से कुछ कहा। बीवी की समझ में कुछ नहीं आया। करतार सिंह ने अब अपनी आवाज थोड़ी तेज की और कहा, देख संतो.. मैं इसे रखना नहीं चाहता, यह मुझे नहीं चाहिए। इसे जाने दे वापस, रब के पास। ऐसा कर, तू इसे अपना दूध मत पिला। यह खुद चली जाएगी ।

करतार सिंह अपनी बात कह चुका था....उसकी बीवी को लगा जैसे किसी ने उसके सिर पर लुहार का हथौड़ा चला दिया है। करतार सिंह के सिर पर जैसे शैतान सवार था। उसने फिर कहा., देख.. संतो.. हमें थोड़े दिन रोना पड़ेगा, रो लेंगे लेकिन इसे तू वापस भेज दे। जाने दे इसे...बीवी पथरायी आंखों से पति को देखने लगीकरतार सिंह को लगा कहीं वह मना ना कर दे।. उसने उसे कंधे से पकड़ कर कहा, ....देख.. तुझे मेरी कसम है...अगर तूने मेरा कहा ना माना तो मैं तुझे छोड़ दूंगा...,..इतना कहकर करतार सिंह एक झटके में कमरे से निकल गया और वापस अपने खेत चला गया वैसे ही लड़खड़ाता हुआ जैसे कोई अफीमची लड़खड़ाता है।

उसकी बीवी को जैसे लकवा मार गया.....उसके कानों में गांव की उन औरतों की सिसकियां गूंजने लगीं जिनकी बेटियों को जनमते ही मार दिया गया था.....वाहे गुरु ..कैसी परीक्षा ले रहा है मेरी.....

गांव में रात आज ऐसे उतरी थी जैसे सब कुछ खत्म करके जाएगी। संतो के कमरे में भी रात का वही घना अंधेरा पसरा था। करतार सिंह के जाने के बाद संतो ने बच्ची को एक बार भी अपना दूध नहीं पिलाया। रात भर उसकी छातियों से दूध रिसता रहा ..संतो ने अपनी बच्ची की मां का गला घोंट दिया और जो औरत बच्ची के साथ लेटी थी वह करतार सिंह की बीवी थी। भूख – प्यास से बच्ची पूरी रात अजीब - अजीब आवाजें निकालती रही लेकिन संतो मुंह फेर कर रोती रही जैसे पत्थर की हो गयी हो। दूसरा दिन भी बीत गया। संतो को लग रहा था जैसे वह पहाड़ के नीचे दबी है और उसकी जान नहीं निकल रही है।

तीसरे दिन संतों की मासूम बच्ची, भूख - प्यास और बीमारी से जूझकर मर गयी.....

संतो बेहोश हो गयी...और करतार सिंह उस बच्ची को हाथों में उठा..गांव वालों को साथ ले दूर बियाबान में जमीन में गढ्डा खोद उसे सुला आया...

रास्ते भर लोग उससे पूछते रहे.., कैसे मर गयी बेटी?’ जवाब में वो कुछ नहीं कह पाया., धीरे – धीरे यही सवाल करतार सिंह खुद से भी करने लगा....क्यों मार डाला उसने अपनी बेटी ? करतार सिंह ही तो लाया था उसे इस दुनिया में...अपने घर में... और उसी करतार सिंह ने उसे ऐसी मौत दी। करतार सिंह की तकलीफ कम होने का नाम नहीं ले रही थी..।

करतार सिंह को अपनी झोपड़ी में लगभग एक महीना बीत गया था। उसकी हालत अच्छी नहीं थी। किसी पुराने अफीमची की तरह वह अपनी झोपड़ी में पड़ा रहता। घर वाले आकर किसी तरह कुछ खिला जाते।

एक दिन उसके पड़ोस में रहने वाले पंडित के दस साल के लड़के सतनाम ने झोपड़ी के बाहर से आवाज लगाई- ताऊ.! कहां हो ? ..खाना ले लो ताई ने भेजा है..

करतार सिंह का बेटा ओमी और सतनाम दोनों दोस्त थे और सतनाम को करतार सिंह अपने बच्चे की तरह मानता था।

सतनाम की आवाज सुनकर जैसे वह नीम बेहोशी से जागा। बोला, कौन..? दादा.?’...तब तक सतनाम झोपड़ी के अंदर आ गया था। उसने फिर कहा ‘..ताऊ खाना ले लो.....।

करतार सिंह छटपटा रहा था। छूटते ही पूछा,दादा, तुम्हे मालूम है तुम्हारी ताई को बेटी हुई थी...? ’ सतनाम बोला, ..हां ताऊ, पता है लेकिन वो तो मर गयी..! ’

करतार सिंह भरभरा कर बोला, नहीं बेटा, वह मरी नहीं...मैंने उसे मार दिया...

बच्चे ने हिम्मत कर टोका,तुमने उसे क्यों मारा ताऊ?

करतार सिंह बोला, ‘दादा, मुझे नहीं मालूम..मैंने उसे क्यों मारा..लेकिन आप बताओ, मैंने ठीक किया कि गलत...?’

करतार सिंह चीख रहा था लेकिन उसकी आवाज कहीं फंस गयी थी...लग रहा था उसके अंदर से उसकी आवाज नहीं....गहरा पिघला शीशा निकल रहा है...सतनाम डर गया....बिना बताए, चुपचाप वहां से चला आया ।

'नई दुनिया' से साभार .

सोमवार, 29 मार्च 2010

रविवार, 28 मार्च 2010

दिल्ली की दहलीजः भानगढ़


भुतहे खंडहरों का सच
पार्थिव कुमार
अरावली की गोद में बिखरे भानगढ़ के खंडहरों को भले ही भूतों का डेरा मान लिया गया हो मगर सोलहवीं सदी के इस किले की घुमावदार गलियों में कभी जिंदगी मचला करती थी। किले के अंदर करीने से बनाए गए बाजार, खूबसूरत मंदिरों, भव्य महल और तवायफों के आलीशान कोठे के अवशेष राजावतों के वैभव का बयान करते हैं। लेकिन जहां घुंघरुओं की आवाज गूंजा करती थी वहां अब शाम ढलते ही एक रहस्यमय सन्नाटा छा जाता है। दिन में भी आसपास के गांवों के कुछेक लोग और इक्कादुक्का सैलानी ही इन खंडहरों में दिखाई देते हैं।
भानगढ़ में भूतों को किसी ने भी नहीं देखा। फिर भी इसकी गिनती देश के सबसे भुतहा इलाकों में की जाती है। इस किले के रातोंरात खंडहर में तब्दील हो जाने के बारे में कई कहानियां मशहूर हैं। इन किस्सों का फायदा कुछ बाबा किस्म के लोग उठा रहे हैं जिन्होंने खंडहरों को अपने कर्मकांड के अड्डे में तब्दील कर दिया है। इनसे इस ऐतिहासिक धरोहर को काफी नुकसान पहुंच रहा है मगर इन्हें रोकने वाला कोई नहीं है।
राजस्थान के अलवर जिले में सरिस्का नॅशनल पार्क के एक छोर पर है भानगढ़। इस किले को आमेर के राजा भगवंत दास ने 1573 में बनवाया था। भगवंत दास के छोटे बेटे और मुगल शहंशाह अकबर के नवरत्नों में शामिल मानसिंह के भाई माधो सिंह ने बाद में इसे अपनी रिहाइश बना लिया।
भानगढ़ का किला चहारदीवारी से घिरा है जिसके अंदर घुसते ही दाहिनी ओर कुछ हवेलियों के अवशेष दिखाई देते हैं। सामने बाजार है जिसमें सड़क के दोनों तरफ कतार में बनाई गई दोमंजिली दुकानों के खंडहर हैं। किले के आखिरी छोर पर दोहरे अहाते से घिरा तीन मंजिला महल है जिसकी अूपरी मंजिल लगभग पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी है।
चहारदीवारी के अंदर कई अन्य इमारतों के खंडहर बिखरे पड़े हैं। इनमें से एक में तवायफें रहा करती थीं और इसे रंडियों के महल के नाम से जाना जाता है। किले के अंदर बने मंदिरों में गोपीनाथ, सोमेश्वर, मंगलादेवी और क्ेशव मंदिर प्रमुख हैं। सोमेश्वर मंदिर के बगल में एक बावली है जिसमें अब भी आसपास के गांवों के लोग नहाया करते हैं।
मौजूदा भानगढ़ एक शानदार अतीत की बरबादी की दुखद दास्तान है। किले के अंदर की इमारतों में से किसी की भी छत नहीं बची है। लेकिन हैरानी की बात है कि इसके मंदिर लगभग पूरी तरह सलामत हैं। इन मंदिरों की दीवारों और खंभों पर की गई नफीस नक्काशी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह समूचा किला कितना खूबसूरत और भव्य रहा होगा।
माधो सिंह के बाद उसका बेटा छतर सिंह भानगढ़ का राजा बना जिसकी 1630 में लड़ाई के मैदान में मौत हो गई। इसके साथ ही भानगढ़ की रौनक घटने लगी। छतर सिंह के बेटे अजब सिंह ने नजदीक में ही अजबगढ़ का किला बनवाया और वहीं रहने लगा। आमेर के राजा जयसिंह ने 1720 में भानगढ़ को जबरन अपने साम्राज्य में मिला लिया। इस समूचे इलाके में पानी की कमी तो थी ही 1783 के अकाल में यह किला पूरी तरह उजड़ गया।
भानगढ़ के बारे में जो किस्से सुने जाते हैं उनके मुताबिक इस इलाके में सिंघिया नाम का एक तांत्रिक रहता था। उसका दिल भानगढ़ की राजकुमारी रत्नावती पर आ गया जिसकी सुंदरता समूचे राजपुताना में बेजोड़ थी। एक दिन तांत्रिक ने राजकुमारी की एक दासी को बाजार में खुशबूदार तेल खरीदते देखा। सिंघिया ने तेल पर टोटका कर दिया ताकि राजकुमारी उसे लगाते ही तांत्रिक की ओर खिंची चली आए। लेकिन शीशी रत्नावती के हाथ से फिसल गई और सारा तेल एक बड़ी चट्टान पर गिर गया। अब चट्टान को ही तांत्रिक से प्रेम हो गया और वह सिंघिया की ओर लुढकने लगा।
चट्टान के नीचे कुचल कर मरने से पहले तांत्रिक ने शाप दिया कि मंदिरों को छोड़ कर समूचा किला जमींदोज हो जाएगा और राजकुमारी समेत भानगढ़ के सभी बाशिंदे मारे जाएंगे। आसपास के गांवों के लोग मानते हैं कि सिंघिया के शाप की वजह से ही किले के अंदर की सभी इमारतें रातोंरात ध्वस्त हो गईं। उनका विशवास है कि रत्नावती और भानगढ़ के बाकी निवासियों की रूहें अब भी किले में भटकती हैं और रात के वक्त इन खंडहरों में जाने की जुर्रत करने वाला कभी वापस नहीं आता।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने सूरज ढलने के बाद और उसके उगने से पहले किले के अंदर घुसने पर पाबंदी लगा रखी है। दिन में भी इसके अंदर खामोशी पसरी रहती है। कई सैलानियों का कहना है कि खंडहरों के बीच से गुजरते हुए उन्हें अजीब सी बेचैनी महसूस हुई। किले के एक छोर पर केवड़े के झुरमुट हैं। तेज हवा चलने पर केवड़े की खुशबू चारों तरफ फैल जाती है जिससे वातावरण और भी रहस्यमय लगने लगता है।
लेकिन ऐसे भी लोग हैं जो भानगढ़ के भुतहा होने के बारे में कहानियों पर यकीन नहीं करते। नजदीक के कस्बे गोला का बांस के किशन सिंह का अक्सर इस किले की ओर आना होता है। उन्होंने कहा, ‘‘मुझे इसमें कुछ भी रहस्यमय दिखाई नहीं देता। संरक्षित इमारतों में रात में घुसना आम तौर पर प्रतिबंधित ही होता है। किले में रात में घुसने पर पाबंदी तो लकड़बग्घों, सियारों और चोर - उचक्कों की वजह से लगाई गई है जो किसी को भी नुकसान पहुंचा सकते हैं।’’
बाकी इमारतों के ढहने और मंदिरों के सलामत रहने के बारे में भी किशन सिंह के पास ठोस तर्क है। उन्होंने कहा, ‘‘सरकार के हाथों में जाने से पहले भानगढ़ के किले को काफी नुकसान पहुंचाया गया। मगर देवी - देवताओं से हर कोई डरता है इसलिए मंदिरों को हाथ लगाने की हिम्मत किसी की भी नहीं हुई। यही वजह है कि किले के अंदर की बाकी इमारतों की तुलना में मंदिर बेहतर हालत में हैं।’’
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने किले के अंदर मरम्मत का कुछ काम किया है। लेकिन निगरानी की मुकम्मल व्यवस्था नहीं होने के कारण इसके बरबाद होने का खतरा बना हुआ है। किले में भारतीय पुरातत्व सवेक्षण का कोई दफ्तर नहीं है। दिन में कोई चौकीदार भी नहीं होता और समूचा किला बाबाओं और तांत्रिकों के हवाले रहता है। वे इसकी सलामती की परवाह किए बिना बेरोकटोक अपने अनुष्ठान करते हैं। आग की वजह से काली पड़ी दीवारें और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के टूटेफूटे बोर्ड किले में उनकी अवैध कारगुजारियों के सबूत हैं।
दिलचस्प बात यह है कि भानगढ़ के किले के अंदर मंदिरों में पूजा नहीं की जाती। गोपीनाथ मंदिर में तो कोई मूर्ति भी नहीं है। तांत्रिक अनुष्ठानों के लिए अक्सर उन अंधेरे कोनों और तंग कोठरियों का इस्तेमाल किया जाता है जहां तक आम तौर पर सैलानियों की पहुंच नहीं होती। किले के बाहर पहाड़ पर बनी एक छतरी तांत्रिकों की साधना का प्रमुख अड्डा बताई जाती है। इस छतरी के बारे में कहते हैं कि तांत्रिक सिंघिया वहीं रहा करता था।
भानगढ़ के गेट के नजदीक बने मंदिर के पुजारी ने इस बात से इनकार किया कि किले के अंदर तांत्रिक अनुष्ठान चलते हैं। लेकिन इस सवाल का उसके पास कोई जवाब नहीं था कि खंडहरों के अंदर दिखाई देने वाली सिंदूर से चुपड़ी अजीबोगरीब शक्लों वाली मूर्तियां कैसी हैं? किले में कई जगह राख के ढेर, पूजा के सामान, चिमटों और त्रिशूलों के अलावा लोहे की मोटी जंजीरें भी मिलती हैं जिनका इस्तेमाल संभवतः उन्मादग्रस्त लोगों को बांधने के लिए किया जाता है। किसी मायावी अनुभव की आशा में भानगढ़ जाने वाले सैलानियों को नाउम्मीदी ही हाथ लगती है। मगर राजपूतों के स्थापत्य की बारीकियों को देखना हो तो वहां जरूर जाना चाहिए। किले के अंदर बरगद के घने पेड़ और हरीभरी घास पिकनिक के लिए दावत देती है। लेकिन अगर आप वहां चोरी से भूतों के साथ एक रात गुजारने की सोच रहे हों तो जान लें कि भूत भले ही नहीं हों, जंगली जानवर और कुछ इंसान खतरनाक हो सकते हैं।

शुक्रवार, 12 मार्च 2010

बी बी सी हिंदी से साभार - विनोद वर्मा का ब्लॉग

मेरा परिवारवाद बनाम तेरा परिवारवाद

विनोद वर्मा विनोद वर्मा | बुधवार, 24 फरवरी 2010, 11:45 IST

सुना है कि लालकृष्ण आडवाणी इन दिनों ठीक तरह से सो नहीं पा रहे हैं.

उनके सपनों में दिवंगत विजया राजे सिंधिया आ रही हैं और उनसे शिकायत कर रही हैं कि वे उनके परिवार की राजनीति पर वार कर रहे हैं.

सुना है कि उनका कहना है कि वसुंधरा राजे सिंधिया उनकी बेटी होने की वजह से राजनीति में नहीं हैं और न ही वसुंधरा राजे का बेटा दुष्यंत उनकी वजह से भारतीय जनता पार्टी का टिकट पाता रहा है. उन्हें यह भी नाराज़गी है कि यशोधरा राजे लगभग दो दशक अमरीका में रहकर यदि मध्यप्रदेश में राजनीति कर रही हैं तो वह सिंधिया परिवार की वजह से तो है नहीं.

कहा जा रहा है कि जागते हुए भी लालकृष्ण आडवाणी जी को कई लोग परेशान कर रहे हैं.

लोग बता रहे हैं कि गोपीनाथ मुंडे मुँह फुलाए बैठे हैं कि उनकी बेटी पंकजा विधायक क्या बन गईं पार्टी को परिवारवाद दिख रहा है. उनका कहना है कि पूनम महाजन को टिकट इसलिए थोड़े ही मिला कि वे उनकी भतीजी हैं, वह तो दिवंगत नेता प्रमोद महाजन की बेटी होने के नाते मिला था.

सुना है कि सांसद मेनका गांधी कह रही हैं कि एक तो वे कांग्रेस वाले गांधी परिवार की काट की तरह पार्टी की सेवा कर रही हैं और उस पर अब आडवाणी जी को उनका बेटा वरुण अखर रहा है. उनकी शिकायत है कि एक तो पार्टी के लिए वरुण गांधी ने अपने सेक्युलर होने का पारिवारिक चोगा उतार दिया और उसका यह फल मिल रहा है.

हिमाचल के मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल सफ़ाई देते घूम रहे हैं कि आडवाणी जी ने जो परिवारवाद की बात कही है वह उनके बेटे अनुराग ठाकुर पर लागू नहीं होती.

अटल बिहारी वाजपेयी के भांजे अनूप मिश्रा और भतीजी करुणा शुक्ला भी सुना है कि सफ़ाई दे रहे हैं कि उन्होंने अटल जी के नाम से कभी राजनीति नहीं की, इसलिए उन्हें परिवारवाद की परिभाषा से अलग रखा जाए.

कल्याण सिंह को लग रहा है कि पार्टी से अलग क्या हुए आडवाणी जी को उनका बेटा राजबीर सिंह खटक रहा है.

मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान राहत की साँस ले रहे हैं कि अच्छा हुआ उनकी पत्नी को पार्टी का टिकट नहीं मिला उधर जसवंत सिंह सोच रहे हैं कि अब आडवाणी उनके बेटे मानवेंद्र सिंह की राजनीति के पीछे पड़ गए हैं.

लेकिन भाजपा के निकटतम सहयोगी और पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल सुना है कि बेचैन हैं कि आडवाणी जी एनडीए में रहकर साथ देने का अच्छा सिला दे रहे हैं. उनका कहना है कि उनका बेटा सुखबीर सिंह अपने दम पर उप मुख्यमंत्री और पार्टी अध्यक्ष है. उनकी बहू हरसिमरत कौर अपनी क़ाबिलियत पर सांसद हैं. उनका भतीजा मनप्रीत बादल और उनके दामाद अवधेश सिंह कैरों इसलिए मंत्री हैं क्योंकि उनसे क़ाबिल लोग राज्य में थे ही नहीं. वे पूछ रहे हैं कि यदि सुखबीर के साले विक्रम सिंह मजीठा को मंत्री न बनाया होता तो सुखबीर के लिए कुर्सी कौन खाली करता?

सुना है कि बाला साहब ठाकरे कह रहे हैं कि यदि आडवाणी में ठीक राजनीतिक समझ होती तो वे उद्धव ठाकरे को परिवार के बेटे की तरह आगे बढ़ाते. वे कह रहे हैं कि जीवन भर भतीजे राज ठाकरे को राजनीति सिखाने के बाद वह बेवफ़ाई कर गया इसलिए उसे ठाकरे परिवार का नहीं मानना चाहिए.

अभी इस पर संघ-परिवार की ओर से कुछ सुनाई नहीं पड़ा है. कहा जा रहा है कि वे विश्लेषण और मंथन कर रहे हैं कि कहीं आडवाणी जी ने नितिन गडकरी को अध्यक्ष बनाने की नाराज़गी में संघ-परिवार पर तो टिप्पणी नहीं की है?

भाजपा के राष्ट्रीय सम्मेलन में जब से लालकृष्ण आडवाणी ने परिवारवाद की राजनीति पर टिप्पणी की है तब से कांग्रेसी बगलें झाँक रहे हैं. वे कह रहे हैं कि नेक काम की शुरुआत तो अपने घर से ही होनी चाहिए और यदि कोई अपने परिवार को आगे नहीं बढ़ाएगा तो देश को कैसे आगे बढा़ सकेगा? कांग्रेस का एक धड़ा कह रहा है कि वे भाजपा पर परिवारवाद की राजनीति के लिए पलटवार इसलिए नहीं कर रहे हैं क्योंकि वे एक ही परिवार को परिवार मानते हैं शेष को वे देख ही नहीं पाते.

कहा जा रहा है कि मुलायम सिंह यादव की पार्टी ने कहा है कि आडवाणी परिवारवाद की बात कहकर सेक्युलर ताक़तों को कमज़ोर करना चाहते हैं. उन्हें आशंका है कि कहीं आडवाणी जी को अमर सिंह ने बरगला तो नहीं लिया.

जनता असमंजस है कि किस परिवार की राजनीति को परिवारवाद माने और किसे नहीं?

मंगलवार, 2 मार्च 2010

जगदीश यादव के फोटोग्राफ

श्री जगदीश यादव विख्यात फोटोग्राफर है, यह देश के कई बड़े समाचार पत्रों के फोटो संपादक रहे हैं, आजकल कई देशी विदेशी पत्रों के साथ जुड़े हुए है इन्होनें अपने १५ छायाचित्रों को 'बैठक' पर प्रकाशित करने के लिए प्रेषित किये है जिन्हें यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है |















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JAGDISH YADAV
June2, 2008 to oct3,2009 with Bhaskar group as national photo editor.With the Pioneer English daily and its sister publications Darpan and Namaskar, in-flight and Exotica, well being magazines as Photo Editor. (Since Oct 2004) Preceded with the Ananda Bazar Group of Publication India's leading publishing group bringing out The Telegraph , Ananda Bazar Patrika , Business World and several other periodicals since 1981. Till September 2004, did coverage during Kargil conflict, tracking down the dacoits of Chambal Valley especially Phoolan Devi, Malkhan Singh and Ghanshyam baba. Phoolan Devi's pictures coverage ranging from conflict in Sri Lanka, Jammu and Kashmir, Punjab days of terrorism, Kar Seva that culminated in Ayodhya Babri Mosque demolition and Surat Plague. In 2006 Punjabi academy, Government of NTC Delhi published my pictorial book on Historical Gurudwaras of the Capital, titled "Monuments of Valor and Compassion". Address for communication: 6/109 Media Enclave Vaishali, Ghaziabad. (UP) Pin Code-201012 Tel-0120-2883835 (Land Line) and 9811849160 (mobile)
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