श्रवण गुप्ता..
करतार सिंह की जान हलक में अटकी है......जब वह सांस छोड़ता तो रुक – रुक कर बाहर आती....मानो किसी ने पकड़ रखी हो......सांस लेने में भी वैसा ही भारीपन.....,सांस अपने - आप ना अंदर जाती और ना बाहर आती.....और सिर्फ सांस ही क्यों.....लगता पूरे शरीर पर किसी और का कब्जा हो गया है....।
आंखें खुली रहतीं पर क्या देख रही हैं पता नहीं चलता..। पैर रखता कहीं, पड़ते कहीं । घड़ी भर को अगर आंख लग भी गयी तो लगता गांव के श्मशान वाला भूत गला दबा रहा है....सोते – जागते उसकी आत्मा छटपटाती रहती।
सुबह की तेज पत्ती वाली चाय। मिट्टी के चूल्हे के पास उकड़ूं बैठ कर, गड़वी
से ढालकर पीतल के गिलास से चाय पीती घर वाली, स्कूल के लिए तैयार होता बेटा...और सुबह होते ही मेरा पुत्तर - मेरा पुत्तर कह कर करतार सिंह से लाड़ जताती उसकी बूढ़ी मां, सब उसमें हौसला जगाते। चाहे कैसे भी दिन हों, मन में एक हिम्मत बनी रहती...एक उमंग होती जो इस उम्र में भी उसे बैल की तरह खटाए रखती थी।
कितने काम होते थे करतार सिंह को.....सुबह उठते ही पहले अपने खेत की ओर जाता, फिर उधर ही दिशा – मैदान। गर्मी होती तो थोड़ी दंड - बैठक और जाड़े के दिनों में तेल - मालिश और रहट वाले कुंए पर स्नान। इसके बाद ही घर लौटता करतार सिंह। कुछ खाकर, फिर खेत ही पहुंचता। बीस बीघा खेत था उसके पास। नहर किनारे।
साल में ज्यादातर दिन करतार सिंह के खेत में ही कटते। हाड़ी हो या सोअनी, करतार सिंह को सांस लेने की भी फुरसत नहीं मिलती। फसल जब पकने को होती, तो सबकी बात अनसुनी कर करतार सिंह खेत में बनी अपनी झोपड़ी में ही सोता। नींद में भी वह अपने खेत - खलिहान ही देखता....कभी मेड़ पर खड़ा, कभी नहर से खेत तक पानी की नाले से घास निकालता, कभी फसलों के बीच घूमता तो कभी बैलगाड़ी से मंडी अनाज ले जाता....।
बेटा स्कूल जाने लगा था और बेटियां मां के साथ लगकर बड़ी हो रही थीं। गांव में बहुत कम ही लोग बेटियों को स्कूल भेजते। करतार सिंह की बेटियां भी स्कूल नहीं जाती.. घर में गुड्डा- गुड़िया खेलती रहतीं।
बेटियों से उसे कोई शिकायत नहीं थी लेकिन उसके मन के किसी कोने में एक और बेटे की आस बैठी थी सांप की तरह फन उठाए। उसे लगता जैसे बैलगाड़ी में दो बैल लगते हैं वैसे ही जीवन की गाड़ी खींचने के लिए कम से कम दो बेटे होने चाहिए। ज्यादा हो तो क्या कहने। करतार सिंह को मालूम था एक जाट सिक्ख परिवार में एक से ज्यादा बेटे होने का क्या मतलब है।
करतार सिंह को याद है कुछ साल पहले नहर से पानी निकालने को लेकर कुछ लोगों से उसका झगड़ा हो गया था। लाठियां निकल गयी थीं गांव में और खून के घूंट पीकर उसे पंचायत की शरण में जाना पड़ा था लेकिन अगर उसके दो बेटे आजू - बाजू खड़े रहते तो फैसला वहीं के वहीं हो जाता.....।
अंधेरा घिर आया था। घरों में दिया - बत्ती जलाने का समय हो रहा था। दाई काम निपटा कर जा चुकी थी। नाते - रिश्तेदार की औरतें उसकी बीवी की तीमारदारी में लगी हुई थीं। जैसे ही मौका मिला करतार सिंह अपनी बीवी के कमरे में चला गया।
अंदर बीवी निढ़ाल पड़ी थी। चेहरा स्याह था जैसे बीमार हो। उसने करतार सिंह को कोठरी में आते देख लिया था लेकिन जब तक वह उठने की कोशिश करती करतार सिंह दूसरी तरफ से उसके सिरहाने पहुंच चुका था।
वह समझ गयी कि वह बच्ची को देखना नहीं चाहता। उसके दिल में एक हूक - सी उठी। वह करतार सिंह की तरफ घूम गई। अब उसकी पीठ बच्ची की तरफ थी।
करतार सिंह तख्त पर बैठ गया और फुसफुसाते हुए बीवी से कुछ कहा। बीवी की समझ में कुछ नहीं आया। करतार सिंह ने अब अपनी आवाज थोड़ी तेज की और कहा, ‘ देख संतो.. मैं इसे रखना नहीं चाहता, यह मुझे नहीं चाहिए। इसे जाने दे वापस, रब के पास। ऐसा कर, तू इसे अपना दूध मत पिला। यह खुद चली जाएगी ।’
करतार सिंह अपनी बात कह चुका था....उसकी बीवी को लगा जैसे किसी ने उसके सिर पर लुहार का हथौड़ा चला दिया है। करतार सिंह के सिर पर जैसे शैतान सवार था। उसने फिर कहा., ‘देख.. संतो.. हमें थोड़े दिन रोना पड़ेगा, रो लेंगे लेकिन इसे तू वापस भेज दे। जाने दे इसे...’ बीवी पथरायी आंखों से पति को देखने लगी। करतार सिंह को लगा कहीं वह मना ना कर दे।. उसने उसे कंधे से पकड़ कर कहा, ....‘ देख.. तुझे मेरी कसम है...अगर तूने मेरा कहा ना माना तो मैं तुझे छोड़ दूंगा...,’ ..इतना कहकर करतार सिंह एक झटके में कमरे से निकल गया और वापस अपने खेत चला गया वैसे ही लड़खड़ाता हुआ जैसे कोई अफीमची लड़खड़ाता है।
संतो बेहोश हो गयी...और करतार सिंह उस बच्ची को हाथों में उठा..गांव वालों को साथ ले दूर बियाबान में जमीन में गढ्डा खोद उसे सुला आया...
एक दिन उसके पड़ोस में रहने वाले पंडित के दस साल के लड़के सतनाम ने झोपड़ी के बाहर से आवाज लगाई- ‘ ताऊ.! कहां हो ? ..खाना ले लो ताई ने भेजा है..’
करतार सिंह का बेटा ओमी और सतनाम दोनों दोस्त थे और सतनाम को करतार सिंह अपने बच्चे की तरह मानता था।
सतनाम की आवाज सुनकर जैसे वह नीम बेहोशी से जागा। बोला, ‘कौन..? दादा.?’...तब तक सतनाम झोपड़ी के अंदर आ गया था। उसने फिर कहा ‘..ताऊ खाना ले लो.....।’
करतार सिंह छटपटा रहा था। छूटते ही पूछा,’ दादा, तुम्हे मालूम है तुम्हारी ताई को बेटी हुई थी...? ’ सतनाम बोला, ‘..हां ताऊ, पता है लेकिन वो तो मर गयी..! ’
करतार सिंह भरभरा कर बोला, ‘नहीं बेटा, वह मरी नहीं...मैंने उसे मार दिया...’
बच्चे ने हिम्मत कर टोका, ‘तुमने उसे क्यों मारा ताऊ?
करतार सिंह बोला, ‘दादा, मुझे नहीं मालूम..मैंने उसे क्यों मारा..लेकिन आप बताओ, मैंने ठीक किया कि गलत...?’
करतार सिंह चीख रहा था लेकिन उसकी आवाज कहीं फंस गयी थी...लग रहा था उसके अंदर से उसकी आवाज नहीं....गहरा पिघला शीशा निकल रहा है...सतनाम डर गया....बिना बताए, चुपचाप वहां से चला आया ।
'नई दुनिया' से साभार .