| मंगलवार, 28 दिसम्बर 2010, 16:25 IST
16. 06:50 IST, 29 दिसम्बर 2010 :
5दिसंबर2010 को वैशाली के कृष्ण भवन, में बैठक की अगली कड़ी में राम शिरोमणि शुक्ल और श्रवण कुमार गुप्ता ने अपनी कविताओं का पाठ किया. दो-ढाई दशकों से पत्रकारिता कर रहे राम शिरोमणि लंबे समय से कविताएं लिखते रहे हैं. हालांकि एक लंबा अंतराल भी रहा है. इधर कुछ महीनों से उन्होंने यह सिलसिला फिर शुरू किया है. उन्होंने अपनी एक दर्जन छोटी-बड़ी कविताएं सुनाईं. इनमें कुछ राजनैतिक कविताएं भी थीं. मां, गौरया और बोलने का जोखिम जैसी छोटी कविताओं को साथियों ने खूब पसंद किया। तडि़त दादा ने उनकी कविताओं पर टिप्पणी करते हुए कहा कि उन्हें निरंतर लिखना चाहिए. उनके पास विषय की कमी नहीं है. विनोद वर्मा और अनिल दुबे का कहना था कि उनकी राजनैतिक कविताओं में पैनापन तो है, लेकिन उनमें उन्हें और का करना चाहिए. पार्थिव ने कहा कि गौरया कविता छोटी जरूर है, लेकिन यह ताजगी से भर देती है.
श्रवण कुमार गुप्त ने तीन कविताएं सुनाईं। इनमें से एक दंगे के बाद एक कस्बे के ताने-बाने में आए बदलाव को उन्होंने उकेरा है तो दूसरी कविता दलितों के साथ हुई ज्यादती और समाज में पैदा हो रही जागरूकता पर केंद्रित थी। यह कविता राजनैतिक वक्तव्य नहीं, बल्कि यथार्थ के धरातल पर मजबूती से खड़ी नजर आती है। उनकी इस कविता को तडि़त दा, विनोद वर्मा, अनिल दुबे, राम शिरोमणि, सुदीप ठाकुर सहित सभी साथियों ने सबसे अधिक पसंद भी किया. उनकी कविता उन तमाम लोगों की भावनाओं को व्यक्त करती है, जिन्हें काम के सिलसिले में अपने शहर से बाहर जाना पड़ता है और जब वे कभी लौटते हैं तब वह शहर बदल चुका होता है.
बैठक की अगली कड़ी 26 दिसंबर को होगी क्योंकि 19 दिसंबर को कुछ साथी शहर में नहीं होंगे.
इक्कीस नवंबर, कृष्ण भवन, वैशाली में हुई बैठक में सदस्यों ने अपनी - अपनी रचनाओं का पाठ किया । शुरुआत हुई डा. लाल रत्नाकर की कविताओं से । उन्होंने कविता सुनाने के पहले उन्होंने कहा कि किन मनस्थितियों में ये कविताएं लिखी गयी हैं। उन्होंने कहा कि उनकी कविताएं दलितों और समाज में उनकी हैसियत के बारे में है। उनकी कविताओं से ये साफ था कि वो दलितों के दर्द से वाकिफ हैं और ये दर्द बगैर किस ऐलान के बड़े ही सहज ढंग से उनकी कविताओं में झलकता है। यही उनकी कविता की ताकत है।
डा. लाल के बाद शंभू भद्रा ने कोशी की मार से सड़क पर आ गयी एक महिला की पीड़ा को कविता के माध्यम से कागज पर उतारा। शंभू मिथिला से ताल्लुक रखते हैं और उनका घर सुपौल जिले में पड़ता है। यही वजह है कि मैथिली में लिखी उनकी कविता में सिर्फ सच्चाई थी। और सच्चाई ये है कि लगभग हर साल कैसे कोशी हजारों परिवारों को सड़कों पर लाकर उन्हें भीख मांगने को मजबूर कर देती है जबकि सरकार अंधी - बहरी बनी सरकारी आंकड़े ठीक करने में लगी रहती है।
शंभू के बाद पार्थिव ने अपनी कहानी सुनाई। उनकी कहानी का नाम था -एक पुरानी कहानी-....
दरअसल उनकी कहानी सिर्फ कहानी नहीं थी बल्कि उत्तर प्रदेश, पंजाब, और हरियाणा की लोक गाथाओं के एक बेहद पुरातन पात्र को सामने लाने, उसमें प्राण प्रतिष्ठा करने की सफल कोशिश थी। पार्थिव की ये कहानी एक दलित की कहानी थी, इस कहानी से साफ हो जाता है कि दलित सिर्फ आज अपने हक और अधिकार के लिए नहीं लड़ता बल्कि सैकड़ों, हजारों साल पहले भी वह दमन और गैर - बराबरी के खिलाफ ब्रह्मणों और क्षत्रियों को ललकारने का माद्दा रखते था। किसी लोक कथा के चरित्र को अपनी भाषा और अपने शिल्प से सबके सामने ला खड़ा करना आसान नहीं होता लेकिन पार्थिव ने ये काम कर दिखाया। उन्हें बधाई।
पार्थिव की सशक्त कहानी के बाद विनोद वर्मा ने अपनी कविताओं के माध्यम से बताया कि कैसे प्रतीक्षा हमारे जीवन के हर पल को छूती है, हमारी जिंदगी, हमारा जीना - मरना सब कुछ प्रतीक्षा से जुड़ा है। जीवन के हर शह में प्रतीक्षा है।
इसके बाद तड़ित दा ने अपनी कविताएं पढ़ी। तड़ित दा की कविताओं में जीवन का सच था, उन्होंने कहा कि जीवन में संघर्ष होता है, निराशा भी होती है लेकिन इन सबके बावजूद एक उम्मीद बची रहती है। जुगनू नाम की उनकी कविता में यही उम्मीद दिखती है। यही उनकी कविता का सच था और शायद हम सबके जीवन का भी। हिटलर शीर्षक से लिखी उनकी कविता का संदेश यह था कि अन्याय से आप लड़ सकते हैं, उसे खत्म कर सकते है लेकिन आप उससे महज मतभेद रखकर उसके साथ रह नहीं सकते ।
कुल मिलाकर बैठक का ये दिन शानदार रहा और इस मायने में यादगार भी कि सदस्य कविता और कहानी के माध्यम से सबसे रुबरु हुए और अपनी बात सबके सामने रखी। इस बैठक में राम शिरोमणी शुक्ला, डा. अरविंदन, केवल कुमार, अनिल दुबे, जगदीश यादव और श्रवण कुमार गुप्ता उपस्थित थे। सबने माना कि बैठक में अब रंग आने लगा है और अब औपचारिकता की जगह गर्मजोशी ने ले ली है। आमीन।
विनोद वर्मा | बुधवार, 17 नवम्बर 2010, 13:26 IST
मैं एक प्रशासनिक अधिकारी को जानता हूँ जिनकी ईमानदारी की लोग मिसालें देते हैं.
वे एक राज्य के मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव थे लेकिन लोकल ट्रेन की यात्रा करके कार्यालय पहुँचते थे. वे मानते थे कि उन्हें पेट्रोल का भत्ता इतना नहीं मिलता जिससे कि वे कार्यालय से अपने घर तक की यात्रा रोज़ अपनी सरकारी कार से कर सकें.
वे ब्रैंडेड कपड़े ख़रीदने की बजाय बाज़ार से सादा कपड़ा पहनकर अपनी कमीज़ें और पैंट सिलवाते थे.
जिन दिनों वे मुख्यमंत्री के सचिव रहे उन दिनों सरकार पर घपले-घोटालों के बहुत आरोप लगे. उनके मंत्रियों पर घोटालों के आरोप लगे. लोकायुक्त की जाँच भी हुई. कई अधिकारियों पर उंगलियाँ उठीं.विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त भी हुई. कहते हैं कि पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को अच्छा चंदा भी पहुँचता रहा.
लेकिन वे ईमानदार बने रहे. मेरी जानकारी में वे अब भी उतने ही ईमानदार हैं.
उनकी इच्छा नहीं रही होगी लेकिन वे बेईमानी के हर फ़ैसले में मुख्यमंत्री के साथ ज़रुर खड़े थे. भले ही उन्होंने इसकी भनक किसी को लगने नहीं दी लेकिन उनके हर काले-पीले कारनामों की छींटे उनके कपड़ों पर भी आए होंगे.
भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सत्यनिष्ठा और ईमानदारी पर कोई सवाल नहीं उठाना चाहता. अगर कोई चाहे भी तो नहीं उठा सकता क्योंकि वे सच में ऐसे हैं. वे सीधे और सरल भी हैं.
राजीव गांधी के कार्यकाल को इतिहास का पन्ना मान लें और ओक्तावियो क्वात्रोची को उसी पन्ने की इबारत मान लें तो सोनिया गांधी पर भी कोई व्यक्तिगत आरोप नहीं हैं. कम से कम राजीव गांधी के जाने के बाद वे त्याग करती हुई ही दिखी हैं. एक दशक तक राजनीति से दूर रहने से लेकर प्रधानमंत्री का पद स्वीकार न करने तक.
लेकिन इन दोनों नेताओं की टीम के सदस्य कौन हैं? दूरसंचार वाले ए राजा, राष्ट्रमंडल खेलों वाले सुरेश कलमाड़ी और आदर्श हाउसिंग सोसायटी वाले अशोक चव्हाण.
अटल बिहारी वाजपेयी की गिनती हमेशा बेहद ईमानदार नेताओं में होती रही है. लेकिन उनके प्रधानमंत्री रहते तहलका कांड हुआ, कारगिल में मारे गए जवानों के लिए ख़रीदे गए ताबूत तक में घोटाले का शोर मचा और पेट्रोल पंप के आवंटन में ढेरों सफ़ाइयाँ देनी पड़ीं. यहाँ तक के उनके मुंहबोले रिश्तेदारों पर भी उंगलियाँ उठीं.
ऐसे ईमानदार राजनीतिज्ञ कम ही सही, लेकिन हैं. लेकिन वो किसी न किसी दबाव में अपने आसपास की बेईमानी को या तो झेल रहे हैं या फिर नज़र अंदाज़ कर रहे हैं.
ऐसे अफ़सर भी बहुत से होंगे जो ख़ुद ईमानदार हैं लेकिन बेईमानी के बहुत से फ़ैसलों पर या तो उनके हस्ताक्षर होते हैं या फिर उनकी मूक गवाही होती है.
यह सवाल ज़हन में बार-बार उठता है कि इस ईमानदारी का क्या करें? अपराधी न होना अच्छी बात है लेकिन समाज के अधिकांश लोग अपराधी नहीं हैं. लेकिन ऐसे लोग कम हैं जिनके पास हस्तक्षेप का अवसर है लेकिन वे हस्तक्षेप नहीं कर रहे हैं. जो लोग अपराध के गवाह हैं उन्हें भी क्या निरपराध माना जाना चाहिए? क्या वे निर्दोष हैं?
एक तर्क हो सकता है कि बेईमानों के बीच ईमानदार बचे लोगों की तारीफ़ की जानी चाहिए. लेकिन यह नहीं समझ में नहीं आता कि बेईमान लोगों के साथ काम कर रहे ईमानदार लोगों की तारीफ़ क्यों की जानी चाहिए? बेईमानी को अनदेखा करने के लिए या उसके साथ खड़ा होने के लिए दंड क्यों नहीं दिया जाना चाहिए?
कालिख़ के बीच झक्क सफ़ेद कपड़े पहनकर घूमते रहने की अपनी शर्तें होती हैं. और कितने दिनों तक लोग इन शर्तों के बारे में नहीं पूछेगें?
विनोद वर्मा | मंगलवार, 02 नवम्बर 2010, 15:02 IST
डार्विन ने मानव विकास के बारे में कहा था कि पहले मानव की भी पूँछ होती थी लेकिन लंबे समय तक इस्तेमाल न होने की वजह से वह धीरे-धीरे ग़ायब हो गई.
वैज्ञानिक मानते हैं कि रीढ़ के आख़िर में पूँछ का अस्तित्व अब भी बचा हुआ है. वे ऐसा कहते हैं तो प्रमाण के साथ ही कहते होंगे क्योंकि विज्ञान बिना प्रमाण के कुछ नहीं मानता.
तो अगर पूँछ है तो वह गाहे-बगाहे हिलती भी होगी. अगर आप पूँछ को हिलता हुआ देखने की इच्छा रखते हों तो ऐसा अब संभव नहीं है. लेकिन कई बार ज़बान हिलती है तो इसके संकेत मिलते हैं कि पूँछ हिल रही है.
वैसे तो रोज़मर्रा की ज़िंदगी में इसके कई उदाहरण मिल जाएँगे. प्रोफ़ेसर के सामने कुछ छात्र ऐसी बातें कहते हैं जिससे दूसरे छात्रों का पता चल जाता है कि भीतर छिप गई पूँछ हिल रही होगी. बॉस से कुछ लोग जब 'ज़रुरी बात पर चर्चा' कर रहे होते हैं तो दफ़्तर के बाक़ी लोग महसूस करते हैं कि पूँछ हिल रही है. इश्क में पड़े लोग तो जाने अनजाने कितनी ही बार ऐसा करते हैं.
लेकिन व्यापक तौर पर इसका पता अक्सर राजनीतिक बयानों से चलता है.
कांग्रेसियों को इसमें विशेष महारत हासिल है. नीतीश कुमार ने कहा कि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनने से पहले मुख्यमंत्री बनकर शासन-प्रशासन को समझना चाहिए. तो कांग्रेस से जवाब आया, "जब अटल बिहारी वाजपेयी मुख्यमंत्री बने बिना प्रधानमंत्री बन सकते हैं तो राहुल गांधी क्यों नहीं?"
जो लोग अटल बिहारी वाजपेयी और उनकी राजनीति को जानते हैं वो समझ गए कि पूँछ हिल रही है.
इससे पहले बिहार में ही कांग्रेस के एक प्रवक्ता ने कहा था, "जेपी (जयप्रकाश नारायण) और राहुल गांधी में समानता है."
कांग्रेस का बड़ा तबका जानता और मानता है कि 70 के दशक में कांग्रेस का सबसे बड़ा दुश्मन कोई था तो वे जेपी ही थे. लेकिन बिहार में किसी से तुलना करनी हो तो जेपी से बड़ा व्यक्तित्व भी नहीं मिलता. इसलिए पूँछ हिली तो ज़बान से जेपी से तुलना ही निकली.
इससे पहले एक सज्जन 'इंदिरा इज़ इंडिया' कह चुके थे. कहते हैं कि वह 'मास्टर स्ट्रोक' था. पता नहीं क्यों वैज्ञानिकों ने जाँचा परखा नहीं लेकिन उस समय पूँछ हिलने का पुख़्ता प्रमाण मिल सकता था.
वैसे ऐसा नहीं है कि पूँछ हिलाने पर कांग्रेसियों का एकाधिकार है. भारतीय जनता पार्टी भी अक्सर इसके प्रमाण देती रहती है.
किसी नाज़ुक क्षण में एक भाजपाई सज्जन का दिल द्रवित हुआ तो उन्होंने कहा, "लालकृष्ण आडवाणी लौह पुरुष हैं, वल्लभ भाई पटेल की तरह."
समाजवादियों ने भी अपने एक दिवंगत नेता को 'छोटे लोहिया' कहना शुरु कर दिया था.
'जब तक सूरज चाँद रहेगा फलाँ जी का नाम रहेगा' वाला नारा जब लगता है तो सामूहिक रुप से पूँछ हिलती हैं.
आप कह सकते हैं कि सबकी अपनी-अपनी पूँछ है, जिसे जब मर्ज़ी हो, हिलाए. लेकिन संकट तब खड़ा होता है जब पूँछ को अनदेखा करके लोग नारों को सही मानने लगते हैं.
इतिहास गवाह है कि इंदिरा जी ने अपने को इंडिया मानने की ग़लती की तो वर्तमान में प्रमाण मौजूद हैं कि आडवाणी जी ख़ुद को लौह पुरुष ही मान बैठे. अब नज़र राहुल जी पर है वे भी अगर हिलती हुई पूँछें न देख सके तो पता नहीं जेपी हो जाएँगे या अटल. या कि वे इंतज़ार करेंगे कि कोई कहे, "राहुल ही राष्ट्र है."
वैसे तो ज्ञानी लोग कहते हैं कि विकास का क्रम कभी उल्टी दिशा में नहीं चलता इसलिए कोई ख़तरा नहीं है.
लेकिन उपयोग न होने से पूँछ ग़ायब हो सकती है तो अतिरिक्त उपयोग से अगर किसी दिन फिर बढ़नी शुरु हो गई तो?
बारह-तेरह साल पहले जानेमाने लेखक और पत्रकार अरविंद एन दास ने लिखा था, 'बिहार विल राइज़ फ़्रॉम इट्स ऐशेज़' यानी बिहार अपनी राख में से उठ खड़ा होगा.
एक बिहारी की नज़र से उसे पढ़ें तो वो एक भविष्यवाणी नहीं एक प्रार्थना थी.
लेकिन उनकी मृत्यु के चार सालों के बाद यानी 2004 में बिहार गया तो यही लगा मानो वहां किसी बदलाव की उम्मीद तक करने की इजाज़त दूर-दूर तक नहीं थी.
मैं 2004 के बिहार की तुलना सम्राट अशोक और शेरशाह सूरी के बिछाए राजमार्गों के लिए मशहूर बिहार से या कभी शिक्षा और संस्कृति की धरोहर के रूप में विख्यात बिहार से नहीं कर रहा था.
पटना से सहरसा की यात्रा के दौरान मैं तो ये नहीं समझ पा रहा था कि सड़क कहां हैं और खेत कहां.
सरकारी अस्पताल में गया तो ज़्यादातर बिस्तर खाली थे, इसलिए नहीं कि लोग स्वस्थ हैं बल्कि इसलिए कि जिसके पास ज़रा भी कुव्वत थी वो निजी डॉक्टरों के पास जा रहे थे.
इक्का-दुक्का ऑपरेशन टॉर्च या लालटेन की रोशनी में होते थे क्योंकि जेनरेटर के लिए जो डीज़ल सप्लाई पटना से चलती थी वो सहरसा पहुंचते-पहुंचते न जाने कितनों की जेब गर्म कर चुकी होती थी.
लगभग 60 प्रतिशत जली हुई एक 70-वर्षीय महिला को धूप में चारपाई पर लिटा रखा था और इंफ़ेक्शन से बचाने के लिए चारपाई पर लगी हुई थी एक फटी हुई मच्छरदानी!
ये वो बिहार था जहां लालू यादव 15 साल से सीधे या परोक्ष रूप से सत्ता पर काबिज़ थे.
लगभग छह सालों बाद यानि 2010 की अप्रैल में फिर से बिहार जाने का मौका मिला. काश मैं कह पाता कि नीतीश के बिहार में सब कुछ बदल चुका था और बिहार भी शाइनिंग इंडिया की चमक से दमक रहा था.
परेशानियां अभी भी थीं, लोगों की शिकायतें भी थीं लेकिन कुछ नया भी था.
अर्थव्यवस्था तरक्की के संकेत दे रही थी. हर दूसरा व्यक्ति कानून व्यवस्था को खरी खोटी सुनाता हुआ या अपहरण उद्दोग की बात करता नहीं सुनाई दिया.
दोपहर को स्कूल की छुट्टी के बाद साइकिल पर सवार होकर घर लौटती छात्राएं मानो भविष्य के लिए उम्मीद पैदा कर रही थीं.
डॉक्टर मरीज़ों को देखने घर से बाहर निकल रहे थे. उन्हें ये डर नहीं था कि निकलते ही कोई उन्हे अगवा न कर ले.
किसान खेती में पैसा लगाने से झिझक नहीं रहा था क्योंकि बेहतर सड़क और बेहतर क़ानून व्यवस्था अच्छे बाज़ारों तक उसकी पहुंच बढ़ा रही थी.
कम शब्दों में कहूं तो लगा मानो बिहार में उम्मीद को इजाज़त मिलती नज़र आ रही थी.
और एक बिहारी होने के नाते ( भले ही मैं बिहार से बाहर हूं) ये मेरे लिए बड़ी चीज़ है.
इस चुनाव में नीतीश कुमार समेत सभी राजनीतिक खिलाड़ियों के लिए बहुत कुछ दांव पर है बल्कि लालू-राबड़ी दंपत्ति का पूरा राजनीतिक भविष्य इस चुनाव से तय हो सकता है.
लेकिन बिहारियों के लिए दांव पर है उम्मीद. उम्मीद कि शायद अब बिहार का राजनीतिक व्याकरण उनकी जात नहीं विकास के मुद्दे तय करेंगे, उम्मीद कि बिहारी होने का मतलब सिर्फ़ भाड़े का मजदूर बनना नहीं रहेगा, उम्मीद कि भारत ही नहीं दुनिया के किसी कोने में बिहारी कहलाना मान की बात होगी.
और मुख्यमंत्री कोई बने मेरी उम्मीद बस यही है कि जिस उम्मीद की इजाज़त बिहारियों को पिछले पांच सालों में मिली है वो अब उनसे छिन न सके.