रविवार, 13 फ़रवरी 2011

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

अपने-अपने तहरीर चौक


विनोद वर्मा विनोद वर्मा | सोमवार, 07 फरवरी 2011, 15:15 IST

मिस्र का तहरीर चौक अपने नाम को सार्थक करने जा रहा है. तहरीर यानी आज़ादी.
जिस दिन होस्नी मुबारक़ अपनी गद्दी छोड़ेंगे, जनक्रांति के इतिहास में एक और अध्याय जुड़ जाएगा. जैसा कि ट्यूनिशिया में जुड़ चुका है और यमन में इसकी सुगबुगाहट दिख रही है.
काहिरा के इस तहरीर चौक ने सबक सिखाया है कि लोकतंत्र सिर्फ़ पाँच साल के पाँच साल वोट देने भर का नाम नहीं है. इसने एक आस जताई है कि हर कि सरकारों को उखाड़ फेंकने के लिए राजनीतिक दलों की ओर तकते रहना ही एकमात्र रास्ता नहीं है.
मिस्र की जनता ने दुनिया के हर जागरुक नागरिक के मन में यह सवाल ज़रुर पैदा किया होगा कि हमारा तहरीर चौक कहाँ है.
अगर लोकतंत्र सचमुच लोकतंत्र है तो हर गाँव में, हर जनपद में, हर शहर में, हर ज़िला मुख्यालय में, हर राज्य की राजधानी में और फिर देश की राजधानी में एक तहरीर चौक होना चाहिए. अगर लोकतंत्र सच में जागृत है तो हर नागरिक को अपने तहरीर चौक तक आने का मौक़ा मिलना चाहिए और सरकारों में इन लोगों की बातें सुनने का माद्दा होना चाहिए.
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ राज्य में पंचायत के स्तर पर 'राइट टू रिकॉल' यानी किसी चुने हुए जनप्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार भी जनता को मिला हुआ है. दोनों ही प्रदेशों में जनता समय-समय पर इसका प्रयोग भी कर रही है.
कितना अच्छा होगा यदि विधानसभाओं में और संसद में चुने गए प्रतिनिधियों के लिए भी इसी तरह के प्रावधान कर दिए जाएँ. यक़ीन मानिए कि न सांसद ये प्रावधान लागू होने देंगे और न राज्य विधानसभाओं के सदस्य.
लेकिन भारत जैसे देश में तो तहरीर चौक का होना भी संकट का हल नहीं दिखता.
आपातकाल के बाद देश में तहरीर चौक जैसा ही माहौल था. चुनाव के ज़रिए जनता ने एक तानाशाह सरकार को उखाड़ फेंका. लेकिन जो विकल्प मिला उसने क्या किया? वह तो पाँच साल का कार्यकाल तक पूरा नहीं कर सकी.
बोफ़ोर्स घाटाले से भ्रष्टाचार विरोधी जो मुहीम शुरु हुई उसने एक सरकार का दम तो उखाड़ दिया लेकिन सत्ता में आकर उन तमाम नारों का दम भी उखड़ गया.
पिछले दो दशकों में प्रत्यक्ष और परोक्ष रुप से हर राजनीतिक दल को सत्ता में रहने या सत्ता को प्रभावित करने का मौक़ा मिला है. अलग-अलग राज्यों में भी सरकारों में जनता उन्हें देख रही है. लेकिन कोई ऐसा दल नहीं है जो आस जगाता हो.
जो भाजपा दिल्ली में कांग्रेस पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाती है उसी पार्टी का मुख्यमंत्री कर्नाटक में भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरा दिखाई देता है. दलितों की बहुजन समाज पार्टी का चेहरा भी जनता के सामने है और वामपंथी दलों की कलई भी जनता के सामने खुल गई दिखती है.
अगर राज्यों की राजधानी के लोग अपना तहरीर चौक पा भी जाएँगे और दिल्ली में जनता आकर अपना तहरीर चौक ढूँढ़ भी लेगी तो वह उस चौराहे पर आकर क्या मांगेगी?
पाँच साला चुनावों में जब वोट डालने का मौक़ा आता है तो यह संकट बना रहता है कि साँपनाथ को चुनें या नागनाथ को?
ऐसे में अगर जनता भ्रष्ट, ग़रीब विरोधी और असंवेदनशील सरकारों को उखाड़ फेंकने का सोचे भी तो उसके पास सत्ता में बिठाने के लिए जो विकल्प हैं वे उतने ही घूसखोर, बाज़ार समर्थक और निष्ठुर दिखाई देते हैं.
यह कहना भी मुश्किल है कि सरकारें तहरीर चौक को बर्दाश्त कर सकेंगीं.
ये ठीक है कि 'जलियाँ वाला बाग़' फिर न होगा और भारत में 'थ्येनआनमन चौक' की पुनरावृत्ति भी संभव नहीं है लेकिन हमारी सरकारें आंदोलनों को जिस तरह कुचलती हैं वह बहुत लोकतांत्रिक नहीं है.
दिल्ली के बोट क्लब ने कई ऐतिहासिक रैलियाँ देखी हैं और वह अनगिनत प्रदर्शनों का गवाह है. एक समय वह हमारा अपना तहरीर चौक था. क्या आपने कभी सोचा कि वहाँ ऐसे लोकतांत्रिक प्रदर्शनों पर क्यों रोक लगाई गई और क्यों विरोध प्रदर्शनों को जंतरमंतर और संसद मार्ग की तंग सड़कों तक समेट दिया गया?
बहरहाल, हमें अपना तहरीर चौक मिले न मिले, जब किसी की भी सार्वजनिक रुप से फ़ज़ीहत होगी तो हम कह तो सकेंगे कि 'फलाँ का तहरीर चौक पर होस्नी मुबारक हो गया'. ठीक वैसे ही जैसे दलाली के लिए बोफ़ोर्स एक वैकल्पिक शब्द हो गया है और जब भी कोई घपला करता है तो अक्सर लोग कहते हैं कि 'उसने बोफ़ोर्स कर दिया'.
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"तहरीर चौक" का सवाल मिस्र में तो हो सकता है पर हिंदुस्तान में बगावत वह भी बी.बी.सी. का ब्लॉग पढ़ने वालों से, कमाल की बात. यही कारण  है की सभ्यता और संस्कृति का नेता रहा मिस्र समकालीन युग का राजनैतिक नेतृत्व भी हासिल ही कर लिया, अमेरिका की आतंकी साजिशें मुसलमानों की मुखालफत ने उन्हें ही नेतृत्व की संभावनाओं के लिए खड़ा करने में बड़ा सहयोग कर रहा है. ऐसे हालात किसी न किसी निरंकुश तानाशाह द्वारा ही किये जाते हैं. "भारत का सदियों पुराना द्विज और दलित आन्दोलन के दमन के जब सारे उपाय नाकाफी हो गए तब द्विज और दलित गठबंधन ने जो कुछ आज़ादी के बाद किया और दलित की दुर्दशा के लिए द्विज अपने जिम्मेदार होने को कभी नहीं स्वीकारता है, पर दलित की सत्ता में हकदार होने से नहीं चूकता.  मूलतः भारत में जो राजनैतिक बदलाव अब तक हुए हैं उनसे बदलाव लगभग न के बराबर हुए बल्कि पहले से बदतर स्थितियां बनीं. भारत की जनता इन हालातों पर अंततः अपने को ही कोसती रही हैं और उनके नेता  'होस्नी मुबारक' बनते गए. और जल्दी जल्दी ही 'होस्नी मुबारक' हो गए.
यहाँ एक बड़ा सवाल बिनोद जी ने उठाया है कि 'फलाँ का तहरीर चौक पर होस्नी मुबारक हो गया' क्या यह 'जूमला' चल निकलेगा मुझे तो संदेह है क्योंकि यहाँ पर हर नेता अफसर कर्मचारी और दुराचारी/भ्रष्टाचारी  'होस्नी मुबारक' होने का ख्वाब संजोये हुए है. यदि उसे सचमुच का किसी भी चौक पर 'फलाँ का तहरीर चौक पर होस्नी मुबारक हो गया' नज़र आया तो ........................... 



मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

राम शिरोमणि शुक्ल एवं श्रवण गुप्ता की कविता

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