रविवार, 3 अक्तूबर 2010

बैठक में कश्मीर पर चर्चा

बैठक’ में इस रविवार को चर्चा की विषय था, कश्मीर. हालांकि यह समय अयोध्या पर चर्चा का था लेकिन विषय दो हफ़्ते पहले से तय था. कश्मीर किताबें और अनगिनत लेख लिख चुके वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश जी हमारे अनुरोध पर बैठक में इस विषय पर बोलने के लिए आए.

सुदीप ठाकुर ने बशारत पीर की कश्मीर पर आई किताब ‘कर्फ़्यूड नाइट’ से चर्चा की शुरुआत की. उन्होंने कहा कि एक किताब के बहाने कश्मीर के समकालीन इतिहास को जानने की दिशा में यह बहुत अच्छा प्रयास है. इसके बाद उर्मिलेश जी ने कश्मीर की समस्या को समझने के लिए इतिहास से लेकर वर्तमान तक विस्तार से चर्चा की.

उर्मिलेश जी ने कहा कि 1999 में कारगिल युद्ध के बाद से वर्ष 2008 तक का समय कश्मीर समस्या के हल के लिए बहुत अनुकूल था, जिसका फ़ायदा भारत सरकार ने नहीं
उठाया. उन्होंने पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति के चार सूत्रीय फ़ॉर्मूले और भारत के प्रधानमंत्री के साथ हस्ताक्षर किए गए 'हवाना घोषणापत्र' का ज़िक्र करते हुए कहा कि इन दोनों पर अमल करने की दिशा में कोई क़दम नहीं उठाए गए. उनका आकलन है कि यह ऐसा समय था जब पाकिस्तान की ओर से कश्मीर समस्या के हल की दिशा में काफ़ी प्रयास किए गए लेकिन न तो वाजपेयी सरकार ने कोई पहल की और न मनमोहन सिंह सरकार ही कोई ठोस क़दम उठा पाई.

उर्मिलेश का मानना है कि जम्मू कश्मीर में तीन ऐतिहासिक ग़लतियाँ हुईं. एक जम्मू कश्मीर के वज़ीरे आज़म शेख अब्दुल्ला की 9 अगस्त 1953 को हुई गिरफ़्तारी. दूसरा 1982 में अपनी मौत से पहले शेख अब्दुल्ला का अपने अगंभीर बेटे फ़ारुख़ अब्दुल्ला को अपनी राजनीतिक विरासत सौंपना और 1986 में मु्स्लिम यूनाइटेड फ्रंट को चुनाव में न जीतने देने के लिए चुनाव में की गई धांधली. उनका मानना है कि 1953 में जिस तरह से शेख अब्दुल्ला को गिरफ़्तार किया गया, उसने कश्मीरी लोगों का विश्वास डिगा दिया, उर्मिलेश मानते हैं कि शेख़ अब्दुल्ला यदि राजनीतिक परिपक्वता का परिचय देते हुए नेशनल कॉन्फ्रेंस की कमान मिर्ज़ा बेग के हाथों सौंपते तो इतिहास कुछ और होता.

वे मानते हैं कि यह कहना ग़लत होगा कि आज़ादी की मांग कश्मीरियों के मन में बाद में उभरी क्योंकि वह तो भारत की आज़ादी और पाकिस्तान के निर्माण के पहले से उनके मन में थी. अगर पाकिस्तान ने हमला न किया होता और पाकिस्तानी सेना ने कश्मीरियों के साथ ज़्यादती न की होती तो कश्मीर के लोग तो आज़ादी के ही पक्ष में थे. उर्मिलेश की राय में यह कहना सही नहीं है कि कश्मीर में मौजूदा समय में जो अस्थिरता है उसके पीछे पाकिस्तान का हाथ है क्योंकि जो कुछ हो रहा है वह कश्मीरियों की भावना ही है. उनका मत था कि सरकार जब तक अपने वोट बैंक की चिंता से निकलकर कोई कठिन निर्णय नहीं लेगी, तब तक कुछ नहीं हो सकता.

इसके अलावा उन्होंने कट्टरपंथियों और चरमपंथियों का कश्मीर में सूफ़ी विरासत का विरोध, रायशुमारी को पीछे की राजनीति , पाक अधिकृत कश्मीर की स्थिति आदि कई विषयों पर अपनी राय रखी.

चर्चा में हिस्सा लेते हुए अनिल दुबे ने कहा कि उन्हें लगता है कि जब तक केंद्र में एक ऐसी सरकार नहीं आती जिसका नज़रिया कश्मीर के प्रति जनतांत्रिक हो, तब तक कश्मीर की समस्या हल होती हुई नहीं दिखती. तड़ित कुमार ने कहा कि वे समझ नहीं पाते कि क्यों रायशुमारी की बात बार-बार उठती रहती है और फिर नेपथ्य में चली जाती है. पार्थिव का कहना था कि सरकार को राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ इस समस्या के हल की बात सोचनी चाहिए. उन्होंने सवाल उठाया कि अगर सशस्त्र सेना विशेषाधिकार क़ानून वापस लेना है तो सरकार को क्यों सिर्फ़ भाजपा के दबाव में इस निर्णय को टालती है और क्यों सेना के अधिकारी इसका विरोध करते हैं, जबकि यह निर्णय राजनीतिक है. उनका कहना था कि आज इस क़ानून को ख़त्म कर देना चाहिए क्योंकि ज़रुरत हुई तो इसे कभी भी फिर से लागू किया जा सकता है. जगदीश यादव ने अपने कश्मीर प्रवास के अनूभव याद करते हुए कहा कि कुछ समय पहले वहाँ लोग कहने लगे थे कि अब वे अमन शांति चाहते हैं लेकिन एकाएक हालात फिर बदल गए.

बैठक में अगली चर्चा, 24 अक्तूबर को अयोध्या पर होगी.

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