बुधवार, 21 मार्च 2012

चुनाव परिणामों के निहितार्थ - देश और उत्तर प्रदेश के लिए.

11 मार्च को हुई बैठक में चर्चा का विषय था.
चुनाव परिणामों के निहितार्थ - देश और उत्तर प्रदेश के लिए.

कृष्णा भवन में हुई इस बैठक की शुरुआत सुदीप ठाकुर ने की. उन्होंने कहा कि पहला सवाल उनके ज़हन में ये आता है कि अगर आज लोहिया होते तो वो चुनाव परिणामों के बारे में क्या कहते. उनका कहना था कि समाजवाद अब जिस मकाम पर जा पहुँचा है, उस पर विचार होना चाहिए और इस पर भी क्या परिवारवाद के लिए अकेले राहुल गांधी ज़िम्मेदार हैं? उन्होंने कहा कि नौकरशाही का राजनीतिकरण जितना उत्तरप्रदेश में हुआ है, उतना किसी और प्रदेश में नहीं हुआ. उनका कहना था कि मुलायम सिंह के लिए दिल्ली अभी दूर है. चंद्रभूषण ने कहा कि उत्तर प्रदेश को बिहार के साथ रखकर देखना तय होगा. उनका कहना था कि नीतीश कुमार का पहला चुनाव तो तय मुहावरे पर था लेकिन दूसरा नहीं. दूसरी बार उन्होंने अपनी भूमिका तय की, जाति के बड़े ब्लॉकों को तोड़ा. जबकि मुलायम पिछड़े मुहावरे के नेता हैं और मुसलमानों की गोलबंदी उनका लक्ष्य रहा है. उन्होंने कहा कि अखिलेश के लिए मुख्यमंत्री के रूप में चुनौती होगी कि वे अपने अफ़सर किस तरह से चुनते हैं. चंद्रभूषण का कहना था कि वर्ष 2014 में होने वाले चुनाव अगल मुहावरे के चुनाव होंगे और सारे नेताओं को अपने हिज्जे दुरुस्त करने होंगे. विद्याभूषण ने कहा कि उत्तर प्रदेश से मायावती का जाना ठीक नहीं लगा क्योंकि चाहे वो जैसी भी हों, वो दलितों की ताक़त की प्रतीक थी. उनका कहना था कि मुलायम सिंह भले ही पिछड़ों के नेता हों लेकिन वे दबंगों के नेता हैं. उनका मत था कि क्षेत्रीय पार्टियों का मज़बूत होना ठीक है क्योंकि क्षेत्रीय नेता ही स्थानीय लोगों के सपने सच कर सकते हैं.

पार्थिव ने चुनाव आयोग की ओर से जारी मतदान के प्रतिशत के आंकड़ों के हवाले से कहा कि दिखता है कि जहाँ लोग सरकार से संतुष्ट थे वहाँ मतदान का प्रतिशत नहीं बढ़ा, जैसा कि उत्तराखंड में हुआ. अगर वहाँ भितरघात न होता तो बीजेपी की सरकार लौट भी सकती थी. जबकि उत्तर प्रदेश, पंजाब में जनता नाख़ुश थी और वहाँ मतों का प्रतिशत बहुत बढ़ा. उत्तर प्रदेश के नतीजों के बारे में उन्होंने कहा कि यह अखिलेश यादव और उनकी पार्टी की जीत कम मायावती की हार ज़्यादा है. लोगों ने उनकी कार्यप्रणाली और भ्रष्टाचार को नकार दिया है. उन्होंने कहा कि कांग्रेस का प्रदर्शन बहुत अच्छा नहीं रहा लेकिन यूपी, पंजाब, उत्तराखंड और मणिपुर में कांग्रेस की सीटें बढ़ीं लेकिन भाजपा की सीटें घटीं और ये उसके लिए चिंता की बात होनी चाहिए. उनका कहना था कि इन परिणामों ने दिखा दिया है कि अब राहुल गांधी स्टाइल की राजनीति नहीं चलेगी. तड़ित कुमार ने कहा कि यूपी में लोगों ने मायावती के भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ वोट दिया वहीं अमेठी-रायबरेली के चुनाव परिणाम दिखाते हैं कि वहाँ केंद्र के भ्रष्टाचार का असर पड़ा. उनका कहना था कि अन्ना हज़ारे ने जो अभियान चलाया, उसका असर हुआ है, ऐसा दिखता है. उन्होंने कहा कि इन चुनावों ने एक अहम सवाल उठाया कि अब वामपंथियों की क्या भूमिका होगी और अगर उन्होंने बुद्धिमानी से काम किया तो नया दृश्य देखने को मिल सकता है. प्रकाश ने कहा कि लोगों में बदलाव और विकास की इच्छा बढ़ी है और वह वोट में ज़रुर तब्दील हुई है. उनका कहना था कि विकास का मॉडल क्या हो, यह एक बड़ी समस्या है.

रामशिरोमणि ने कहा कि चुनाव के दौरान मीडिया का ध्यान प्रियंका और राहुल पर केंद्रित था जबकि चुनाव धरातल पर हो रहे थे और परिणाम भी धरातल पर आए. उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार बड़ा मुद्दा था लेकिन उत्तराखंड में एकदम उलट हुआ कि खंडूरी हार गए और निशंक जीत गए. उन्होंने कहा कि इन चुनावों में भी वही जात-पात था लेकिन एक नई चीज़ दिखाई दी कि दलितों के भीतर स्वाभिमान जागृत हुआ है. उनका कहना था कि जिस सोशल इंजीनियरिंग की चर्चा पिछली बार हुई थी, इस बार उसका कोई विश्लेषण नहीं हुआ. उन्होंने कहा कि इन चुनावों में कोई नारा नहीं था. विनोद ने कहा कि भारतीय लोकतंत्र के पैरामीटर्स इतने अधिक हैं कि ये ठीक-ठीक जानना कठिन होता कि कोई चुनाव परिमाण आया तो उसके पीछे किन-किन समीकरणों ने काम किया. उनका कहना था कि पिछले दो दशकों के चुनावों ने कम से कम एक पैरामीटर को पहचानने में मदद की है और वो है नेता की विनम्रता और सहज उपलब्धता. उन्होंने भूपेंद्र सिंह हुड्डा से लेकर नीतीश कुमार और रमन सिंह से लेकर शिवराज सिंह चौहान तक का उदाहरण देकर कहा कि ये सभी नेता अपने प्रतिद्वंद्वी के मुक़ाबले विनम्र रहकर चुनाव जीत सके.

अगली बैठक में तड़ित कुमार अपने नए उपन्यास का अंश सुनाएँगे और फिर उस पर चर्चा की जाएगी.

1 टिप्पणी:

  1. लगभग सबों ने अपने तरीके से विश्लेषण तो किया पर उनका लब्बो लुबाब समकालीन पत्रकारिता जैसा ही रहा, पत्रकारिता का स्वरूप तो बदल रहा है पर नेताओं से अपेक्षा है की वह साधू हो जाएँ ! क्या यही विवेचना है जिन्होंने जिस चश्में से देखा वही बोल दिया है. एक अहंकारी नारी और मुगलकालीन तानाशाह के अंत की कहानी की तरह यह चुनाव नहीं था, ये सारे विश्लेषण विश्लेसकों को चुनाव पूर्व के योगेन्द्र यादव के टीम के परिणामों के कितने करीब हैं यह इनकी चर्चा से गायब रहा है, कई विश्लेषक तो पूर्वाग्रह से भरे हुए हैं. फिर भी बहस तो बहस ही है.

    जवाब देंहटाएं