रविवार, 19 सितंबर 2010

पाश पर प्रकाश डालते हुए प्रकाश .





पाश : जीवन परिचय

अवतार सिंह संधू का जन्म ९ सितम्बर १९५० को पंजाब के तलवंडी सलेम, जालंधर मे हुआ था. ग्यारहवीं कक्षा पास कर उन्होंने अध्यापक बनने के लिए बेसिक ट्रेनिंग प्राप्त की और स्वयं एक स्कूल खोला. इस स्कूल के प्रधानाचार्य से लेकर सफाई कर्मचारी वे खुद ही थे. महज बीस वर्ष की उम्र मे उनका पहला कविता संग्रह - "लोह कथा" (iron-tale) १९७० मे प्रकाशित हुआ. १९७३ मे उनका दूसरा कविता-संग्रह "उड़दे बांजा मगर "(following the fying hawks), और १९७८ मे " हमारे समय विच"(In Our Times) प्रकाशित हुआ. उन्हें 'सिरह' पत्र पंजाबी अकादमी की ओर से १९८५ मे फेलोशिप मिली. पर वे अचानक १९८६ मे लन्दन और फिर वहां से अमेरिका चले गए. अमेरिका जाकर कुछ ही महीनो मे उन्होंने आतंकवाद के खिलाफ एंटी ४७ फ्रंट बनाया. १९८८ मे पाश अपने गाँव लौटकर आये. २३मार्च,८८ को वापस अमेरिका जाने से ठीक एक दिन पहले ट्यूबवेल पर नहाने की तैयारी कर रहे पाश को खालिस्तानी समर्थको ने गोलियों से मार डाला. उनकी पत्नी और नन्ही बेटी ट्विंकल तब अमेरिका मे थे. उनकी हत्या के बाद, १९८९ मे उनके द्वारा लिखी "खिलरे हुए वर्के"(Khilre Hoey Varkey) प्रकाशित हुयी और १९९७ मे उनकी चुनी हुयीपंजाबी कविताओ का संकलन - "इंकार" लाहोर, पाकिस्तान मे प्रकाशित हुआ.
पाश ने कुछ पात्र-पत्रिकाओ का संपादन भी किया. पाश की रचनायें दिल्ली विश्वविद्यालय के पंजाबी साहित्य पाठ्यक्रम मे शामिल है.
पाश की कविताओ से......
"मैंने सुना है कि मेरे क़त्ल का
मंसूबा राजधानी मे मेरी
पैदाइश से पहले ही बन चुका था"- पाश
अवतार सिंह पाश सरल, सहज मगर प्रतिबद्ध, विद्रोह के स्वरों के अद्भुत शिल्पी है. तरुनाई की दहलीज़ पर आते ही पाश शिव कुमार बटालवी की प्रेम कविताओ से प्रभावित हुए मगर जल्द ही उनके शब्द ग्रामीण जीवन के रुपको के माध्यम से "लोहे" मे ढलने लगे. अपनी पहली नज़्म 'लोहा' मे पाश लिखते है -'लोहे की आँख से मित्रो का मुखोटा डाले दुश्मन को भी पहचान सकता हूँ/ क्योंकि मैंने लोहा खाया है , आप लोहे की बात करते है. -पाश की रचनाओ का संसार -बाप के झुलसे हुए जिस्म, माँ के पैरों की बिवईयों , पनिहारिन की उँगलियों से रिसते राग, और साथी के काले-स्याह होंठो का संसार है जिसके खिलाफ पाश लौह इरादों के साथ जंग मे उतरते है- मैंने तुम्हारे लोकतंत्र का नाटक देखा है/ अब मेरी बारी है/ मै कुर्सियां जला डालूँगा/ गद्दे फाड़ डालूँगा. अपनी धरती, मिट्टी और आम जन से जुड़े निर्भीक पाश अत्यंत सहजता से अपना रास्ता - विद्रोह का रास्ता चुनते है. व्यवस्था के खिलाफ बात करते हुए पाश अपने विशिष्ट अंदाज को बनाये रखते हैं -अपनी बात कहने की पाश की अपनी अलग शैली है- जो सीधे दिल मे उतर जाने मे समर्थ है. पाश जमीनी सच को अपने समय की चुनौतियों के परिप्रेश्य मे देखते है और उसके खिलाफ सक्रिय भूमिका में उतरते है. "...जिस तरह सूरज, हवा और बादल घरों और खेतों मे हमारे संग-संग रहते है/ हम उसी तरह हुकूमतों/ विश्वासों और खुशियों को अपने साथ-साथ देखना चाहते है/ जोरावारो, हम सबकुछ सचमुच का देखना चाहते है....(प्रतिबद्धता). अपने परिवेश के खिलाफ किसी भी षड़यंत्र को अपनी कविताओ से युद्ध की चुनौती देते हुए खुद सडको पर उतरने का साहस करने वाले अप्रतिम योद्धा हैं - पाश. -युद्ध से बचने की लालसा ने/ हमें कुचल दिया है/ हम जिस शांति के लिए रेंगते रहे/ वह शांति भेड़ियों के जबड़ों से/ स्वाद बनकर टपकती रही.......युद्ध इश्क के शिखर का नाम है/युद्ध लहू के लाड़ का नाम है/ युद्ध जीने की सिद्दत का नाम है..( 'युद्ध और शांति'). धार्मिक उन्माद, साम्प्रदायिकता, आतंकवाद, राज्य-सत्ता, संविधान, या जो कोई भी आम जन के खिलाफ हो पाश सबके लिए एक चुनौती बनने लगे. उन पर झूठा मुकदमा कायम कर उन्हे जेल मे डाल दिया गया. भूमिगत जीवन, यातनाओं और लगभग दो वर्षो के जेल जीवन के बावजूद पाश की कवितायेँ पूरी शिद्दत से व्यवस्था के खिलाफ युद्ध लडती रही और आम अवाम के स्वरों मे बदल गयी. पाश को रेडियो और दूरदर्शन से कविता पाठ का निमंत्रण मिला, कवि-सम्मेलनों से बुलावा आया, पर पाश नहीं गए. हाँ, यदि बुलावा साथियों की ओर से आता तो पाश जरूर मौजूद होते.
पाश का समय देश मे नक्सलवादी आन्दोलन के उभार और फिर बिखराव का दौर रहा. मगर पाश का स्पस्ट और साहसिक कविता कर्म कभी नहीं बिखरा. 'बेदखली के लिए विनयपत्र' कविता की ये पंक्तियाँ शायद पाश ही लिख सकते थे- मैंने उम्र भर उसके खिलाफ सोचा और लिखा है/ अगर उसके शोक में / सारा देश शामिल है/ तो इस देश से मेरा नाम काट दो...... उनकी कविता -"घास", जीवट, साहस और प्रतिबद्धता की अनोखी कृति है -मैं घास हूँ/ मैं तुम्हारे हर किये कराये पर उग आऊंगा ....मुझे क्या करोगे / मैं तो घास हूँ, हर चीज ढक लूँगा/ हर ढेर पर उग आऊंगा.... . पाश के सरल-सहज रूपक ही अचानक गंभीर शिल्प मे बदल जाते है - " अगर तुमने ली हो/ परात मे जम रहे गर्म गुड की महक/ और देखा हो जोती हुई नम मिट्टी का/ चाँद की चांदनी में चमकना/ तो आप सभी जरूर कोई कोशिश करें / अतिभूखी वोट की उस पर्ची का/ जो लार टपका रही है/ हमारे खेतों की हरियाली पर. जिन्होंने देखे है/ छतों पर सूखते सुनहरे भुट्टे/ और नहीं देखे मंडी मे सूखते भाव/ वह कभी नहीं समझेंगे कि क्यों दुश्मनी है/ दिल्ली की उस हुक्मरान औरत की/ उस नंगे पैरों वाली गाँव की सुंदर लड़की के साथ... (उडते बाजों के पीछे).
पाश की कविताओ पर आयोजित इस बैठक में प्रकाश चौधरी, राम शिरोमणि शुक्ल तथा डा. लाल रत्नाकर ने पाश की कविताओ का पाठ किया. पाश पंजाबी मे लिखते थे और जो कविताएं हमे पढ़ने को मिली वे हिंदी मे अनुवादित है. काश, हम पाश की रचनाओ को मूल रूप मे सुन पाते..
मै अब विदा लेता हूँ मेरी दोस्त/ मुझमे जीने की बहुत चाह थी/ तुम मेरे भी हिस्से का जी लेना मेरी दोस्त/......पाश
पुनश्च : उक्त संशिप्त लेख के लिए, हम लड़ेंगे साथी- गुरुशरण सिंह, पाश के आसपास- जन संस्कृति मंच, दिल्ली, लोह-कथा ग्रुप जिन्होंने पाश पर 'अपना पाश' क्रम से फिल्मे बनाई है - सबके प्रति आभार. - प्रकाश चौधरी, बैठक परिवार की ओर से

(कृष्ण भवन वैशाली गाजियाबाद 'बैठक' के कार्यक्रम में रविवार १९ सितम्बर २०१० को . आज की बैठक में शिरकत करने वालों में -राम शिरोमणि शुक्ल , डॉ.लाल रत्नाकर ,कृष्ण सिंह ,डॉ.प्रकाश चौधरी एवं पार्थिव कुमार |)

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