बुधवार, 3 नवंबर 2010

अब भी हिलती है पूँछ

बी बी सी हिंदी से साभार -

विनोद वर्मा विनोद वर्मा | मंगलवार, 02 नवम्बर 2010, 15:02 IST

डार्विन ने मानव विकास के बारे में कहा था कि पहले मानव की भी पूँछ होती थी लेकिन लंबे समय तक इस्तेमाल न होने की वजह से वह धीरे-धीरे ग़ायब हो गई.

वैज्ञानिक मानते हैं कि रीढ़ के आख़िर में पूँछ का अस्तित्व अब भी बचा हुआ है. वे ऐसा कहते हैं तो प्रमाण के साथ ही कहते होंगे क्योंकि विज्ञान बिना प्रमाण के कुछ नहीं मानता.

तो अगर पूँछ है तो वह गाहे-बगाहे हिलती भी होगी. अगर आप पूँछ को हिलता हुआ देखने की इच्छा रखते हों तो ऐसा अब संभव नहीं है. लेकिन कई बार ज़बान हिलती है तो इसके संकेत मिलते हैं कि पूँछ हिल रही है.

वैसे तो रोज़मर्रा की ज़िंदगी में इसके कई उदाहरण मिल जाएँगे. प्रोफ़ेसर के सामने कुछ छात्र ऐसी बातें कहते हैं जिससे दूसरे छात्रों का पता चल जाता है कि भीतर छिप गई पूँछ हिल रही होगी. बॉस से कुछ लोग जब 'ज़रुरी बात पर चर्चा' कर रहे होते हैं तो दफ़्तर के बाक़ी लोग महसूस करते हैं कि पूँछ हिल रही है. इश्क में पड़े लोग तो जाने अनजाने कितनी ही बार ऐसा करते हैं.

लेकिन व्यापक तौर पर इसका पता अक्सर राजनीतिक बयानों से चलता है.

कांग्रेसियों को इसमें विशेष महारत हासिल है. नीतीश कुमार ने कहा कि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनने से पहले मुख्यमंत्री बनकर शासन-प्रशासन को समझना चाहिए. तो कांग्रेस से जवाब आया, "जब अटल बिहारी वाजपेयी मुख्यमंत्री बने बिना प्रधानमंत्री बन सकते हैं तो राहुल गांधी क्यों नहीं?"

जो लोग अटल बिहारी वाजपेयी और उनकी राजनीति को जानते हैं वो समझ गए कि पूँछ हिल रही है.

इससे पहले बिहार में ही कांग्रेस के एक प्रवक्ता ने कहा था, "जेपी (जयप्रकाश नारायण) और राहुल गांधी में समानता है."

कांग्रेस का बड़ा तबका जानता और मानता है कि 70 के दशक में कांग्रेस का सबसे बड़ा दुश्मन कोई था तो वे जेपी ही थे. लेकिन बिहार में किसी से तुलना करनी हो तो जेपी से बड़ा व्यक्तित्व भी नहीं मिलता. इसलिए पूँछ हिली तो ज़बान से जेपी से तुलना ही निकली.

इससे पहले एक सज्जन 'इंदिरा इज़ इंडिया' कह चुके थे. कहते हैं कि वह 'मास्टर स्ट्रोक' था. पता नहीं क्यों वैज्ञानिकों ने जाँचा परखा नहीं लेकिन उस समय पूँछ हिलने का पुख़्ता प्रमाण मिल सकता था.

वैसे ऐसा नहीं है कि पूँछ हिलाने पर कांग्रेसियों का एकाधिकार है. भारतीय जनता पार्टी भी अक्सर इसके प्रमाण देती रहती है.

किसी नाज़ुक क्षण में एक भाजपाई सज्जन का दिल द्रवित हुआ तो उन्होंने कहा, "लालकृष्ण आडवाणी लौह पुरुष हैं, वल्लभ भाई पटेल की तरह."

समाजवादियों ने भी अपने एक दिवंगत नेता को 'छोटे लोहिया' कहना शुरु कर दिया था.

'जब तक सूरज चाँद रहेगा फलाँ जी का नाम रहेगा' वाला नारा जब लगता है तो सामूहिक रुप से पूँछ हिलती हैं.

आप कह सकते हैं कि सबकी अपनी-अपनी पूँछ है, जिसे जब मर्ज़ी हो, हिलाए. लेकिन संकट तब खड़ा होता है जब पूँछ को अनदेखा करके लोग नारों को सही मानने लगते हैं.

इतिहास गवाह है कि इंदिरा जी ने अपने को इंडिया मानने की ग़लती की तो वर्तमान में प्रमाण मौजूद हैं कि आडवाणी जी ख़ुद को लौह पुरुष ही मान बैठे. अब नज़र राहुल जी पर है वे भी अगर हिलती हुई पूँछें न देख सके तो पता नहीं जेपी हो जाएँगे या अटल. या कि वे इंतज़ार करेंगे कि कोई कहे, "राहुल ही राष्ट्र है."

वैसे तो ज्ञानी लोग कहते हैं कि विकास का क्रम कभी उल्टी दिशा में नहीं चलता इसलिए कोई ख़तरा नहीं है.

लेकिन उपयोग न होने से पूँछ ग़ायब हो सकती है तो अतिरिक्त उपयोग से अगर किसी दिन फिर बढ़नी शुरु हो गई तो?

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