सोमवार, 24 जनवरी 2011

रविवार, 23 जनवरी, 2011 को हुई बैठक में चर्चा का विषय था, 'राज्य और स्वतंत्रता'.

चर्चा की शुरुआत सुदीप ठाकुर ने की. उनका कहना था कि लोकतंत्र ही दुनिया का सबसे अच्छा तंत्र है और तमाम खामियों के वाबजूद वे मानते हैं कि भारतीय लोकतंत्र मज़बूत है और आगे और मज़बूत होगा. उनका कहना था कि आज जो परिस्थितियाँ बन रही हैं उससे बहुत से लोगों को लगता है कि आपात काल में भी इतनी ख़राब स्थिति नहीं है.

अनिल दुबे ने कहा कि संसदीय रिपोर्टिंग के अपने अनुभव से वे जानते हैं कि संसद में बहसों के लिए किस तरह से शब्दों के चयन में सावधानी बरती जाती है और ऐसा लगता है कि बैठक में भी ऐसा हुआ है और पूर्व निर्धारित 'देशद्रोह' पर चर्चा करने के स्थान पर 'राज्य और स्वतंत्रता' जैसा शब्द चुन लिया गया है. उन्होंने कहा कि वे समझ नहीं पा रहे हैं कि क्यों लोग इस चर्चा को बाहर ले जाने पर आपत्ति कर रहे हैं और बंद कमरे में ही बौद्धिक विलास करने में व्यस्त हैं. उन्होंने सवाल उठाया कि बिनायक सेन और अरुंधति राय जैसे लोगों के लिए तो आवाज़ उठाने वाले लोग हैं लेकिन छत्तीसगढ़, झारखंड और उड़ीसा की जेलों में उन्हीं धाराओं में बंद हज़ारों आदिवासियों की आवाज़ उठाने वाले लोग नहीं हैं.

तड़ित कुमार ने कहा कि उन्हें बार-बार लगता है कि राज्य की अवधारणा स्वतंत्रता को सीमित करती है और इसलिए वे सोचते हैं कि 'स्टेटलेस स्टेट' या राज्यविहीन समाज ही इसका विकल्प हो सकता है. उनका कहना था कि राज्य ही लोगों को बांधता है. बैठक में आमंत्रित प्रोफ़ेसर कुमुदेश कुमार का कहना था कि राज्य की जैसी अवधारणा है उसमें अक्सर सरकार की राज्य की तरह दिखती है क्योंकि लोकतंत्र में सरकार ही राज्य की तरह निर्णय लेती है. उन्होंने कहा कि लोकतंत्र में ही यह ख़तरा बहुत होता है कि वहाँ आतंकवाद पैदा हो जाए और इसकी वजह यह है कि लोकतंत्र में सभी को एक हद तक लोगों को अपनी बात कहने की आज़ादी होती है फिर उसके बाद ही किसी व्यक्ति या संगठन पर कार्रवाई होती है. उन्होंने कहा कि अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि लोकतंत्र ही किसी देश के लिए सबसे अच्छी प्रणाली है.

पार्थिव कुमार ने इस चर्चा में हिस्सा लेते हुए सरकार के षडयंत्र की बात उठाई. उनका कहना था कि पिछले दिनों वित्तमंत्रियों के सम्मेलन में वित्त मंत्रियों ने कहा कि महंगाई इसलिए बढ़ गई है क्योंकि लोगों की क्रय शक्ति बढ़ गई है. उनका कहना था कि सरकार अब ग़रीबी की बात नहीं करती बल्कि महंगाई कम करने की बात करती है. उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि महंगाई कम करने के लिए सरकार निर्यात पर रोक लगाती है और आयात को बढ़ावा देती है. ऐसे में स्थानीय किसानों या उत्पादकों को अपने सामान की क़ीमत कम मिलती है और आख़िर में पिसता देश का ही आदमी है. सरकार भूल कर भी सब्सिडी देने की बात नहीं करती और कहती है कि इससे तो अर्थव्यवस्था ही गड़बड़ा जाएगी. स्वतंत्रता के सवाल पर उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता एक दायरे तक सीमित है और यह दायरा आर्थिक दायरा है. सरकार किसी भी विरोध को तभी तक बर्दास्त करती है जब तक कि उसके आर्थिक हितों पर आँच नहीं आती.

बैठक में पहली बार शामिल हुए शुभ्रांशु चौधरी ने कहा कि यह लोकतंत्र नहीं धनतंत्र हो गया है. उन्होंने कहा कि वे अपने अनुभवों से कह सकते हैं कि दक्षिण एशियाई देशों में भारत में ही लोकतंत्र की स्थिति सबसे बेहतर है. उनका सुझाव था कि उन लोगों की भी आवाज़ सुने जाने की कोशिश की जानी चाहिए जिनके पास अपनी आवाज़ लोगों तक पहुँचाने का काई साधन नहीं है. उन्होंने कहा कि वे एक प्रयोग कर रहे हैं और उन्हें लगता है कि मोबाइल फ़ोन शायद आने वाले दिनों में स्वतंत्रता का एक कारगर हथियार बन सकता है क्योंकि उसकी पहुँच इंटरनेट की तुलना में बहुत अधिक है. इंटरनेट का प्रयोग सिर्फ़ 0.7 प्रतिशत लोग करते हैं जबकि मोबाइल का प्रयोग क़रीब 70 करोड़ लोग करने लगे हैं.

बैठक के एक और आमंत्रित सदस्य प्रोफ़ेसर लोहानी ने पार्थिव से सहमत होते हुए कहा कि लोकतंत्र धनतंत्र हो गया है. उनका कहना था कि सत्ता के विरुद्ध लोकतांत्रिक लड़ाइयों को राजनेता भी तभी तक साथ देते हैं जब तक कि वे ख़ुद सत्ता तक नहीं पहुँच जाते. उन्होंने मी़डिया के व्यवहार को लेकर भी सवाल उठाए.

विनोद वर्मा ने कहा कि लोकतंत्र की अवधारण तो गण के लिए तंत्र बनाने की थी लेकिन दिखता ऐसा है मानो तंत्र अपने लिए गण का इस्तेमाल कर रहा है. उन्होंने कहा कि ग्राम पंचायत से लेकर ज़िले, फिर राज्य और आख़िरकार देश तक हर स्तर पर सिर्फ़ दस लोग होते हैं जो इस तंत्र को चला रहे हैं. उन्होंने लोगों की तटस्थता पर चिंता जताते हुए कहा कि जिस तरह से लोकतंत्र के तीनों स्तंभों में गड़बड़ी दिख रही है उससे लगता है कि लोकतंत्र पर ख़तरा मंडरा रहा है.

डॉ.लाल रत्नाकर ने कहा कि संगठनों की लड़ाई में यह हमेशा से होता आया है कि संघर्ष करने वाला हमेशा संघर्ष करता रहता है और जो संगठन संघर्ष का नेतृत्व कर रहे होते हैं वे विषय बदल लेते हैं.

श्रवण ने इस चर्चा में हस्तक्षेप करते हुए बैठक में हो रही चर्चा को कमरे से बाहर ले जाकर सेमीनार जैसे आयोजन करने की ज़ोरदार वकालत की. लेकिन कृष्ण ने कहा कि इसमें कई व्यवहारिक दिक्कतें सामने आ सकती हैं जिसमें इस तरह के आयोजनों को जारी रखने का सवाल भी शामिल है.

चर्चा के अंत में रामशिरोमणि शुक्ला ने कहा कि उनके मन में यह सवाल बार-बार उठता है कि मूलभूत समस्याओं पर चर्चा नहीं होती. उन्होंने उदाहरण देकर कहा कि स्कूल जाने के लिए साइकिल और ड्रेस तो सरकार दे रही है लेकिन शिक्षकों और शिक्षा की व्यवस्था करने की ओर सरकार का कोई ध्यान नहीं है.

अगली बैठक छह फ़रवरी को होगी जिसमें अनिल दुबे की कहानी का पाठ होगा और उस पर चर्चा होगी.

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